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कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप ४११
का अधिक अनुभव करता है। इस प्रकार कर्म-परतंत्रता के कारण उसकी निखालिस स्वतंत्रता टिक नहीं पाती। स्वतंत्रता चलती है, पर परतंत्रता आवृत कर देती है, परन्तु पूर्णतया नहीं।' कर्म जीव को क्यों परतत्र बना डालते हैं? __कर्म जीव (आत्मा) को परतंत्र क्यों बना डालते हैं ? इस विषय में गहराई से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि आत्मा का स्व-भाव, स्व-गुण या स्व-रूप है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख (आनन्द) और शक्ति (वीय)। आत्मा (जीव) जब ज्ञानादि स्व-भाव या स्वरूप को छोड़कर, विस्मृत करके राग-द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, माया-कपट, विषयासक्ति आदि पर-भावों या विभावों में रमण करने लगता है; तब उन वैभाविक परिणामों से कर्म-पुद्गल आकृष्ट होकर बँध जाते हैं। जैनाचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में-“जब आत्मा अपने स्व-भाव को छोड़कर रागद्वेषादि परिणामों (विभावों) से युक्त होकर शुभ या अशुभ कार्यों (योगों) में प्रवृत्त होती है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणीयादिरूप से उसमें प्रविष्ट हो जाती है"। ऐसी स्थिति में आत्मा निजस्वरूप-स्वभाव को भूल जाती है, विभावों के कारण विमूढ़ होकर कर्माधीन बन जाती है। संक्षेप में कहें तोआत्मविस्मृति से या स्वभाव की विस्मृति से कर्म आत्मा को परतंत्र बना देता है। यह परतंत्रता तब अधिकाधिक जटिल होती है, जब उसे स्व-रूप या स्वभाव का भान या दृढ़निश्चय नहीं होता; तथा वह कर्म के पाश में जकड़ने वाले मिथ्यात्वादि मूल कारणों को छोड़ने का पराक्रम नहीं करता। कर्मचक्र आत्मा को कैसे पराधीन बनाते हैं?
.. आत्मा जब तक जन्म-मरणादि चक्ररूप संसार में स्थित है, और जब तक वह आत्मा और आत्म-स्वभाव को भूला हुआ है, उसके ज्ञान, दर्शन, आनन्द (सुख) और शक्ति रूप निजगुणों पर कर्मों का आवरण आया हुआ रहता है। ऐसे संसारी आत्मा की कर्माधीनता अर्थात्-कर्म-परतंत्र अवस्था उपन्यास के कथानक की घटना के तुल्य है। एक घटना अपनी पूर्व घटना के परिणामस्वरूप घटित होती है और परिणामस्वरूप घटित यह घटना भी आगामी घटना के लिए आधार बनती है। कर्मचक्र भी इसी प्रकार गतिशील रहकर आत्मा को अपने अधीन (परतंत्र) बनाये रखता है। बीज से वृक्ष और वृक्ष से परिणामस्वरूप पुनः बीज की उत्पत्ति की तरह रागद्वेषादि वैभाविक परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से विविध गतियों में जन्म, १. कर्मवाद से पृ. ८९ २. कर्म और कर्मफल (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित लेख) से पृ. १४८
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