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________________ ४०८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . कर्मबन्ध का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ : परतत्रता में डालने वाला इसी प्रकार कर्मबन्ध का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ करते हुए 'बंध विहाणा में कहा गया है-"जो बांध देता है, अर्थात्-परतंत्रता-अस्वतंत्रता में डाल देता है वह (कर्म-) बंध है।' ज्ञानीजन कर्मविपाक की परतंत्रता को भली-भांति जानते हैं कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्माधीनता अथवा कर्म-विपाक-परवशता को भली-भांति जान लिया। इसीलिए वे कहते हैं-"दुःख तो तीर्थंकरों, ज्ञानीपुरुषों और निर्ग्रन्थ मुनियों पर भी आते हैं; परन्तु वे यह जानकर कि सारा संसार कर्म-विपाक के अधीन है; न तो दुःख पाकर दीन बनते हैं, और न ही सुख को पाकर विस्मित होते हैं।"२ . कर्म का लक्षण : जो जीव को परतंत्र करता है जब मनुष्य अपने और संसार के अन्यान्य जीवों के जीवन के सभी. पक्षों, मोड़ों, या पहलुओं पर दृष्टिपात करता है. और जब उसे जिस भाषा और उदाहरणों, कथानकों या ग्रन्थों के द्वारा समझाया कि उसका व्यक्तित्व तथा पूरा वर्तमान अतीत कृतकर्मों से बंधा हुआ है तब यह धारणा सहज ही बन जाती है कि कर्म प्राणियों को बंधन में डालता है, परतंत्र बना देता है। इसीलिए कर्म का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ 'आप्तपरीक्षा' में इसी प्रकार किया गया है-"जो जीव को परतंत्र करते हैं, अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किये जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं।" संसारी जीव हीनस्थान को अपनाने के कारण कर्म-परतंत्र - ___ 'आप्त परीक्षा में कहा गया है कि संसारी जीव कर्मों से बँधा-जकड़ा हुआ है, इसलिए पराधीन है; परतंत्र है। जैसे-हस्तिशाला में स्तम्भ से बंधा हुआ हाथी परतंत्र रहता है, इसी प्रकार संसारी जीव भी कर्म से बँधा हुआ होने के कारण परतंत्र है। संसारी जीव की कर्म-परतंत्रता सिद्ध करने हेतु आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं-"यह संसारी जीव पराधीन (कर्म-परतंत्र) है, क्योंकि इसने हीनस्थान को ग्रहण किया है; जैसे-वेश्या का घर हीन (निन्द्य) स्थान है। यदि कामवासनावश श्रोत्रिय उच्च ब्राह्मण वेश्या के घर १. बध्यते - अस्वातंत्र्यमापादयति येनाऽऽत्मा स बन्धः। -बंधविहाणे मूल पयडिबंधो पृ. १२ २. "दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः। ____ मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् ॥" ३. जीवं परतंत्रीकुर्वन्ति, स परतंत्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि। -आप्तपरीक्षा टी. ११३/२९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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