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________________ कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३७५ भावकर्म से कोई विशिष्ट द्रव्यकर्म उत्पन्न होता है, तब वह (भावकम) उस द्रव्यकर्म का कारण है, और द्रव्यकर्म उसका कार्य है। इस प्रकार व्यक्तिशः पूर्वापरभाव का निश्चय संभव होने पर भी समस्त संसारी जीवजाति की अपेक्षा से दोनों में पूर्वापरभाव का निश्चय असम्भव होने के कारण द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों का पारस्परिक कार्यकारणभाव अनादि है, इनमें पूर्वापरता नहीं होती। भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म कारण क्यों माने ? .. यदि यह शंका की जाए कि भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है, यह तो ठीक है; क्योंकि जीव अपने राग-द्वेष-मोहात्मक परिणामों के कारण ही द्रव्यकर्म के बन्धन में बद्ध होता है, और जन्म-मरणादिरूप संसार में परिभ्रमण करता है; किन्तु भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को कारण मानना कहाँ तक ठीक है ? . - इसका समाधान यह है कि यदि द्रव्यकर्म के अभाव में भी भावकर्म की उत्पत्ति संभव-मानी जाएगी तो मुक्तजीवों में भी भावकर्म प्रादुर्भूत होने लगेगा, और उन्हें भी भावकर्मवश संसार में पुनः जन्म-मरणादि के चक्र में पड़ना पड़ेगा। फिर तो संसार और मोक्ष में कोई अन्तर नहीं रहेगा। संसारी जीवों की तरह मुक्त जीवों में भी कर्म-बन्धन-योग्यता माननी पड़ेगी। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति कर्म-मुक्त होने की साधना में पुरुषार्थ क्यों करेगा? फिर तो कोई भी व्यक्ति अपने पूर्वकृत कर्मों का क्षय करने तथा नये आने वाले कर्मों का निरोध (संवर) करने के लिए उत्साहित नहीं होगा। अतः जैनकर्म-विज्ञान का सुस्पष्ट मत है कि मुक्त जीवों में द्रव्यकर्म का अभाव होने से भावकर्म भी नहीं होता। संसारी जीवों में पूर्वकृत द्रव्यकर्म के होने से भावकर्म की और भावकर्म से फिर द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है। इसी कारण बद्ध आत्मा के लिए संसार अनादि है। दोनों में पारस्परिक कार्य-कारणभाव का स्पष्टीकरण - "द्रव्यकर्म और भावकर्म में पारस्परिक कार्य-कारणभाव का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जैसे मिट्टी का पिण्ड घटरूप में परिणत होता है, इसलिए मिट्टी को घट का उपादान कारण माना जाता है। किन्तु मिट्टी में घड़ा बनने की योग्यता होने पर भी अगर कुम्भकार न हो तो घड़ा नहीं बन सकता। इसलिए कुम्भकार घटरूप कार्य का निमित्त कारण है। इसी प्रकार १. आत्म मीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. ९६-९७ से १२. (क) कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (देवेन्द्रमुनि) पृ. २६ । (ख) आत्ममीमांसा पृ. ९७ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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