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________________ कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३७३ दोनों कारणों का स्वरूप और परस्पर एक दूसरे के निमित्त इससे स्पष्ट है कि जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति का मूल कारण भावकर्म (मानसिक) है, लेकिन उस मानसिक वृत्तियों के लिए जिस बाह्य कारण की अपेक्षा है, वही द्रव्यकर्म है। आशय यह है कि मनोविकारों, कषायों या वैभाविक भावों की उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती, उसके लिए भी कारण अपेक्षित है। सभी भाव जिस निमित्त की अपेक्षा रखते हैं, वही 'द्रव्यकर्म' है। इसी प्रकार जब तक आत्मा में राग-द्वेष-कषायात्मक भावकर्म की उपस्थिति न हो, तब तक कर्म-पुद्गल-परमाणु जीव के लिए कर्म (कर्मबन्धन) के रूप में परिणत नहीं हो सकते। अतः श्री अमरमुनि जी के अनुसार भावकर्म के होने में पूर्वबद्ध द्रव्यकर्म निमित्त है और वर्तमान में बध्यमान द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है।' भावकर्म द्वारा द्रव्यकर्म की उत्पत्ति ___ तात्पर्य यह है कि भावकर्म द्वारा यानी जीव की उक्त क्रिया द्वारा कार्मणजाति के अजीव-कर्म-पुद्गल आत्मा के संसर्ग में आकर उससे चिपक जाते हैं। आत्मा को वे बन्धन में डाल देते हैं, आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों को कुण्ठित कर देते हैं, इस कारण वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं। भावकर्म क्रिया है, द्रव्यकर्म है-फल यद्यपि द्रव्यकर्म पुद्गल हैं, किन्तु वे जीव के द्वारा कषायादिवश आकृष्ट किये जाते हैं, इसलिए उन्हें औपचारिक रूप से कर्म कहा गया है। वस्तुतः आत्मा की क्रिया या उसके कर्म से उत्पन्न होने के कारण यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया गया है। भावकर्म कारण है, और द्रव्यकर्म कार्य। जीव की प्रवृत्ति या क्रिया भावकर्म है, और उसका फल है-द्रव्यकर्म। इन दोनों में कार्य-कारण भाव है। द्रव्य-भावकों में द्विमुखी कार्यकारणभाव . अर्थात्-राग-द्वेषादिमय वैभाविक परिणाम भावकर्म हैं और उस वैभाविक परिणामों से आत्मा में जो कार्मण वर्गणा के पुद्गल सर्वात्मना चिपकते हैं, वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं। इस अपेक्षा से द्रव्यकर्म और भावकर्म में निमित्त-नैमित्तिक रूप द्विमुख कार्य-कारणभाव सम्बन्ध है। अर्थात्भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त। १. (क) जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से पृ. १४ (ख) श्री अमरभारती नव. १९६५ पृ. ९ २. आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) से पृ. ९६ ३. धर्म और दर्शन (उपा. देवेन्द्रमुनि) से पृ. ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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