SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म ३७१ प्रकार जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है, जब मन-वचन-काया की क्रिया या प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति में कार्य-कारणभाव को लक्ष्य में रखते हुए कार्मणजाति के पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म और तज्जनित राग-द्वेषादि परिणामों से हुई प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है। द्रव्यकर्म और भावकर्म की उत्पत्ति की प्रक्रिया आशय यह है कि यद्यपि कर्म शब्द का अर्थ क्रिया या प्रवृत्ति है, किन्तु जैनदर्शन केवल यही अर्थ स्वीकार नहीं करता। संसारी जीव की प्रत्येक मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवृत्ति या क्रिया तो कर्म है ही, परन्तु वह बन्धकारक तभी बनता है जब जीव के परिणाम राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि से युक्त हों। वही रागद्वेषात्मक परिणाम भावकर्म कहलाता है। - जैनदर्शन का मन्तव्य है कि इस समग्र लोक में डिबिया में भरे हुए काजल की तरह सूक्ष्म और बादर कर्म-पुद्गल-परमाणु ठसाठस भरे हुए हैं। ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ कर्म-पुद्गल-परमाणु न हों। लेकिन ये समस्त कर्म-पुद्गल-परमाणु कर्म नहीं कहलाते। इनकी विशेषता यही है कि इनमें 'कर्म' बनने की योग्यता है। किन्तु पहले मानस में किसी भी तरह का कम्पन-स्पन्दन होता है, अर्थात्-मन में प्रशस्त, अप्रशस्त, पुण्यरूप, पापरूप संकल्प-विकल्प पैदा होता है। कर्मयोग्य पुद्गल सर्व लोकव्यापी होने से, जहाँ आत्मा है वहाँ पहले से विद्यमान रहते हैं। जिस क्षेत्र में आत्म-प्रदेश हैं, उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल कर्मयुक्त जीव के राग-द्वेषादिरूप परिणामों से आत्मप्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं। अर्थात्-पूर्वोक्त शुभाशुभ अध्यवसायों से बाहर के अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होकर आत्मा से चिपक (सम्बद्ध हो) जाते है। आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध या संयुक्त ये कर्म-परमाणु ही जैनदृष्टि से द्रव्यकर्म कहलाते हैं। उपादान, निमित्त और नैमित्तिक कारण के सिद्धान्तानुसार द्रव्य-भावकर्म . यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी कार्य के लिए निमित्त और १. कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) (जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक) से पृ. २५ २. आत्ममीमांसा से (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. ९५ ३. (क) पंचास्तिकाय गा. ६४ (आचार्य कुन्दकुन्द) (ख) पंचास्तिकाय टीका (आचार्य अमृतचन्द्र) से (ग) जैनदर्शन और आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) पृ. १८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy