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कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप
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जिन भावों से स्पन्दनक्रिया होती है, उनके संस्कार क्षण-क्षण में जीव द्वारा गृहीत पुद्गलों में ही संचित होते रहते हैं।"१ पुद्गलों का योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन
इसी तथ्य का समर्थन तत्त्वार्थ राजवार्तिक में किया गया है-जिस प्रकार पात्र-विशेष में डाले गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प और फलों का मद्यरूप में परिणमन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप से परिणमन हो जाता है। कार्मणपुद्गलों का ही कर्मरूप से परिणमन . यद्यपि पुद्गलों की मुख्य जातियाँ अनेक (तेईस) हैं, परन्तु वे सब पुद्गल इस काम नहीं आते। मात्र कार्मणवर्गणा नामक पुद्गल ही इस काम में आते हैं। ये अतिसूक्ष्म और समस्त लोक में व्याप्त हैं। जीव (मन-वचन-काय की) स्पन्दन-क्रिया द्वारा इन्हें प्रतिसमय ग्रहण करता है
और अपने भावों के अनुसार इन्हें संस्काररूप में संचित करके कर्मरूप से परिणत कर लेता है। ___इस प्रकार कर्मशब्द जैनदर्शन के अनुसार तीन अर्थों में प्रयुक्त होता
(१) जीव की स्पन्दन-क्रिया, (२) जिन भावों से स्पन्दन-क्रिया होती
१, (क) महाबन्धो पुस्तक २ में कर्ममीमांसा (प. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) से
पृ. १६-१७ . (ख) 'कर्मवाद और जन्मान्तर' से २. यथा भाजनविशेष प्रक्षिप्ताना विविध रस-बीज-पुष्प-फलाना मदिराभावेन
परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योग-कषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः।
-तत्त्वार्थ राजवार्तिक (अकलंकदेव) पृ. २९४ ३. (क) पुद्गलों की मुख्य २३ जातियाँ (वर्गणाएँ) है-(१) अणुवर्गणा, (२)
संख्याताणुवर्गणा, (३) असंख्याताणुवर्गणा, (४) अनन्ताणुवर्गणा, (५) आहारवर्गणा, (६). अग्राह्यवर्गणा, (७) तैजसवर्गणा, (८) अग्राह्यवर्गणा, (९) भाषावर्गणा, (१०) अग्राह्यवर्गणा, (११) मनोवर्गणा, (१२) अग्राह्यवर्गणा, (१३) कार्मणवर्गणा, (१४) धुववर्गणा, (१५) सान्तर-निरन्तरवर्गणा, (१६) शून्यवर्गणा, (१७) प्रत्येकशरीरवर्गणा, (१८) ध्रुवशून्यवर्गणा, (१९) बादर-निगोदवर्गणा, (२०) शून्यवर्गणा, (२१) सूक्ष्म-निगोदवर्गणा, (२२) शून्यवर्गणा और (२३) महास्कन्धवर्गणा। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), षट्खण्डागम पु. १४ ख. ५ आ. ६ (ख) परमाणूहि अणन्ताहि वग्गण-सण्णा दु होदि एक्का हु।'
-गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. २४४ (एक वर्गणा अनन्तानन्त परमाणुओं के प्रचयरूप होती है।)
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