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________________ कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप १ कर्म-शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप Jain Education International कर्म का सार्वभौम साम्राज्य और विश्वास भारतीय जन-जीवन में कर्म - शब्द बालक, युवक और वृद्ध सभी की जबान पर चढ़ा हुआ है। यही नहीं, विश्व के समस्त श्रेणी के विचारक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, तत्त्वचिन्तक, साहित्यकार, पत्रकार, कवि, लेखक तथा स्वर्णकार, लोहकार, दर्जी, नाई आदि शिल्पी एवं कृषक, श्रमजीवी, गृहोद्योगी तथा सभी प्रकार के व्यवसायी, कारखानेदार, नौकरी पेशे वाले एवं राजनैतिक एक या दूसरे प्रकार से कर्म से सम्बन्धित एवं प्रभावित हैं । भारतीय धर्म, राजनीति, समाजतंत्र, अर्थतंत्र, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान, दर्शन, कला, परिवार, ज्ञाति, नीति आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्म का सार्वभौम साम्राज्य है। कर्म और उससे मिलने वाले फल पर विश्वास रखकर इन सभी क्षेत्रों के मानव कार्य करते हैं, और धैर्यपूर्वक उसके परिणाम (फल) की प्रतीक्षा करते हैं। कृषक, श्रमजीवी, पहलवान, विद्यार्थी, व्यवसायी आदि जो भी कर्म करते हैं, क्या उसका फल उन्हें तुरन्त मिल जाता है ? फिर भी वे श्रद्धा और निष्ठापूर्वक सत्कर्म करते हैं और उसका फल भी पाते हैं। कर्मशब्द का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न अर्थों में इस प्रकार कर्मशब्द सभी आस्तिक धर्मग्रन्थों, दर्शन, उपनिषदों तथा धर्मशास्त्रों, शब्दशास्त्रों, विधि (कानून) शास्त्रों, समाजविज्ञान, भौतिकविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, नातिशास्त्र, कामशास्त्र आदि लोकोत्तर एवं लौकिक शास्त्रों तथा जगत् के प्रत्येक व्यवहार, प्रवृत्ति अथवा कार्य में प्रयुक्त. होता है। यही कारण है कि विभिन्न व्यवहारों में 'कर्म' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता है । इस दृष्टि से खाना-पीना, चलना-फिरना, उठाना रखना, नहाना-धोना, सोना- जगना, बोलना - मौन रहना, देखनासुनना, सूंघना स्पर्श करना, श्वासोच्छ्वास लेना छोड़ना, सोचनाविचारना, चिन्तन करना, जीना मरना इत्यादि समस्त शारीरिक ३५५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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