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________________ ३३८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) बेइज्जती, सजा आदि भी तो नियत थी, जिसके यहाँ चोरी हुई उसे तलाश आदि का पुरुषार्थ करने से चुराया हुआ अपना माल वापिस मिलना भी तो नियत हो सकता है। एकान्तनियतिवाद का आश्रय लेने से मनुष्य इस प्रकार का ऊटपटांग कथन करने लगता है। इसलिए अनेकान्तदृष्टि से कार्य में सम्यक् नियति को भी यथायोग्य अपेक्षा से कारणरूप में स्वीकार करना चाहिए। कर्मवाद-मीमांसा कर्मवाद का मन्तव्य यह है कि जगत् में जो भी घटना होती है, जो कुछ कार्य, व्यवहार या आचरण होता है, अथवा प्राणियों का जहाँ भी जिस गति, योनि या लोक में जन्म होता है, तथा उसे शरीर से सम्बन्धित जो भी अच्छी-बुरी, अनुकूल-प्रतिकूल सामग्री मिलती है, अथवा प्राणियों को जो भी सुख-दुःख, हानि-लाभ, इष्ट-अनिष्ट, हित-अहित, संघर्ष-मेल, आदि का वेदन होता है, उसके पीछे कर्म ही एकमात्र कारण है। उसमें काल या स्वभाव का कुछ भी वश नहीं चलता। चाहे जितना पुरुषार्थ किया जाए, पूर्वकृत कर्म शुभ नहीं हैं तो प्राणी को उसका अनुकूल फल नहीं मिलता। जिस समय किसी वस्तु के मिलने का अवसर आता है, उसके लिए पूरा उद्यम भी किया जाता है, परन्तु अशुभ कर्मोदयवशात् ऐन वक्त पर मनुष्य मरण-शरण हो जाता है। अथवा किसी वस्तु की उपलब्धि में अन्तराय आ जाता है, मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, वह विपरीत मार्ग पर चढ़कर उस उपलब्धि के अवसर को खो बैठता है, यह सब पूर्वकृत कर्मों के फल का ही खेल है। इसके सिवाय उसके यथार्थ समाधान का कोई उपाय नहीं है। दशरथपुत्र युगपुरुष रामचन्द्रजी को प्रातःकाल राजगद्दी मिलने वाली थी। अयोध्या में सर्वत्र राज्याभिषेक का महोत्सव हो रहा था। सर्वत्र खुशियाँ छा रही थीं। वशिष्ठऋषि ने श्रीराम के राज्याभिषेक का प्रातःकाल मुहूर्त निश्चित किया था। किन्तु कर्मलीला बड़ी विचित्र है कि राज्याभिषेक के बदले रामचन्द्रजी को वनगमन करना पड़ा। उनको १४ वर्ष का वनवास स्वीकारना पड़ा। सीता जैसी पवित्र महासती को भी गर्भावस्था में श्रीराम जैसे महान् आत्मा द्वारा वनवास दिया जाना भी कर्म-शक्ति को प्रत्यक्ष घोषित कर रहा है। इस युग के आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव को मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् बारह महीनों तक यथाकल्प आहार न मिलना भी उनके पूर्वकृत कर्म-फल का ही द्योतक है। भ. ऋषभदेव को आहार-प्राप्ति में काल और स्वभाव तो अनुकूल ही थे, पुरुषार्थ भी उन्होंने भरसक किया था। फिर भी आहार-प्राप्ति न हुई, इसके पीछे पूर्वकृत कर्म के सिवाय और क्या कारण हो सकता है ? श्री सनत्कुमार जैसे सौन्दर्यमूर्ति चक्रवर्ती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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