SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२ ३३१ विमुख साधकों को अविद्याग्रस्त कहा गया है। सांख्यदर्शन में केवल तत्वज्ञान से ही मोक्ष माना गया है। जिस प्रकार तैरने के ज्ञानमात्र से तैरना नहीं आ जाता, उस ज्ञान को क्रियान्वित करने अर्थात् तालाब आदि में कूदकर अभ्यास करने से ही वह तैरने की कला सीख पाता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अनेक भाषाओं, दर्शनों, तत्त्वों या बातों का ज्ञान करले, किन्तु आत्मविकास के अनुरूप, ज्ञान के अनुरूप उसका आचरण न करे, तो उसका ज्ञान निष्फल है। वन्ध्य है। निरर्थक है। इसलिए जैन-दर्शन ने ज्ञान के साथ चारित्र को आवश्यक बताया है। भगवान् महावीर ने कर्मों से सर्वथा मुक्ति के लिये सम्यग्दर्शन और ज्ञान के साथ चारित्र का गुण होना अनिवार्य बताया है। चारित्र के बिना एकान्त ज्ञान से कर्ममुक्ति नहीं हो सकती। प्रकृतिवाद-सांख्यदर्शन का यह मत था कि सत्त्व, रज और तम इस त्रिगुणात्मक प्रकृति से ही समग्र जगत् का विकास-ह्रास होता है। समस्त प्राणियों के, विशेषतः मानवीय सुख, दुःख, सम्पन्नता, विपन्नता, इष्टवियोगअनिष्टसंयोग, अनिष्टवियोग-इष्टसंयोग आदि का तथा बन्धन आदि का कारण भी वह प्रकृति को ही मानता है। यह कर्मवाद के सिद्धान्त के प्रतिकूल है, क्योंकि प्रकृति अपने आप में जड़ है, वह अपने हिताहित को नहीं समझती। यह चेतन आत्मा के ही अधीन है कि वह अच्छा या बुरा कार्य या आचरण करे। बन्ध प्रकृति के न होकर परुष (आत्मा) के ही होता है, वही बन्ध का क्षय करके मुक्त हो सकता है। अव्याकतवाद-आत्मा आदि के सम्बन्ध में मौलुक्यपुत्त द्वारा पूछे जाने पर तथागत बुद्ध ने कहा-आत्मा न तो शाश्वत है और न ही उच्छिन्न। इसके अतिरिक्त 'लोक सान्त है अथवा अनन्त, शाश्वत है या अशश्वत ? जीव और शरीर भिन्न हैं या अभिन्न ? एवं 'मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं ?' ये और इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर न देकर 'अव्याकृत' कहकर टाल दिया। उन्होंने अव्याकृत इसलिए कहा कि 'उनके बारे में कहना सार्थक नहीं है, न भिक्षुचर्या और ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी हैं। और न ही यह निर्वाण, निर्वेद, शान्ति एवं परमज्ञान के लिए आवश्यक हैं।"२ -उत्तरा. अ.६/१० १. (क) भणता अकरता य बन्ध-मोक्ख-पइप्पिणो। वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं॥ (ख) पचविंशति तत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रतः, ___ जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नाऽत्र संशयः। (ग) ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन! २. (क) बौद्धपिटक मौलुक्यपुत्त संवाद (ख) जैनदर्शन (डॉ महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ. १०८ -सांख्यतत्वकौमुदी -भगवद्गीता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy