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________________ कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - २ ३२९ "जिसमें से यह विसृष्टि हुई, उसने उसका निर्माण किया या नहीं ? जो इसका अध्यक्ष परम व्योम में है, वही जानता है, अथवा वह भी न जानता हो ? "" इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऋग्वेदीय इस मंत्र के ऋषिगण सृष्टि-वैचित्र्य एवं सृजन के विषय में शंकाशील थे, अनिश्चय में ही पड़े रहे। कई ऋषिगण दृश्य जगत् (जगत् के दृश्यमान पदार्थों) को असत् मानते थे, फिर वे असत् से सत् (अस्ति रूप) की उत्पत्ति मानने लगे। फिर किसी ऋषि ने शंका की असत् से सत् (दृश्य जगत्) कैसे पैदा हो सकता है ? तब यह विचार स्थिर किया कि पहले सत् ही एकमात्र था, उसी से सत् (दृश्य जगत्) उत्पन्न हुआ। अतः दृश्यमान् विश्व का मूल कारण सत् माना गया। जैनदर्शन भी मूल तत्त्वों का अस्तिकाय के रूप में वर्णन करता है, तथा उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य से युक्त को उसने 'सत्' माना । -प्रच्छन्न नियतिवाद - बौद्धपिटक में 'पकुध कात्यायन' के वाद का वर्णन है, जिसे पढ़ने से प्रच्छन्न नियतिवाद की ही प्रतीति होती है। उसके मत का वर्णन वहाँ इस प्रकार है- "सात पदार्थ ऐसे हैं, जो किसी ने बनाए नहीं, बनवाए नहीं। उनका न तो निर्माण किया गया और न कराया गया। वे वन्ध्य.हैं, कूटस्थ हैं और स्तम्भ के समान अचल हैं। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, और एक दूसरे के लिए त्रासदायक नहीं। वे एक दूसरे के दुःख को, सुख को या दोनों को उत्पन्न नहीं कर सकते। वे सात तत्व ये हैंपृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, सुख, दुःख और जीव। इनका नाश करने वाला, इनको सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला अथवा इनका वर्णन करने वाला कोई भी नहीं है।" यदि कोई व्यक्ति तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी के मस्तक का छेदन करता है, तो वह उसके जीवन का हरण नहीं करता। इससे केवल यही समझना चाहिए कि इन सात पदार्थों के १. को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् ? कुत आ जाता ? कुत इयं विसृष्टि ? अर्वाग्देवा • अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव ? इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ? यदि वा यदि वा न ? यो अस्याऽध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥ - ऋग्वेद नासदीय सूक्त १०, १२९ २. (क) असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजयत । - तैत्तिरीयोपनिषद् २/७ (ख) असदेवेदमग्र आसीत् । तत् सदासीत् तत् समभवत तदाऽण्ड निरवर्तत । - छान्दोग्योपनिषद् ३/१९/१ (ग) तद्धेक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । तस्मादसतः सज्जायेत । कुतस्तु खलु सौम्यैवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । सत्त्वैव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । - वही, ६ / २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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