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________________ कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२ ३२३ नहीं होता। इस प्रकार यह सारा ब्रह्मवाद काल्पनिक और मनगढ़त होने से मिथ्या सिद्ध होता है। ईश्वरवाद-पुरुषवाद का दूसरा रूप ईश्वरवाद है। ईश्वरवाद का फलितार्थ ईश्वरकर्तृत्ववाद है। अर्थात्-इस विश्व में व्याप्त समस्त विचित्रताओं-विविधताओं का कर्ता ईश्वर है। उसकी इच्छा के बिना जगत् का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। ईश्वर की अर्हता बतलाते हुए ईश्वरकतत्ववादी कहते हैं-वह अद्वितीय है, सर्वव्यापी है, स्वतन्त्र है, सर्वज्ञ है और नित्य है। ईश्वर को एक, अद्वितीय इसलिए माना गया कि बहुत-से ईश्वर होने पर परस्पर इच्छाविरोध उत्पन्न होने पर जगत् के निर्माण में एक-रूपता, क्रमबद्धता एवं व्यवस्था नहीं रह पाएगी। ईश्वर को सर्वव्यापी न मानकर नियत देशव्यापी माना जाएगा तो अनियत स्थानों के सर्व पदार्थों का यथायोग्य उत्पादन सम्भव नहीं होगा। ईश्वर को सर्वज्ञ नहीं माना जाएगा तो यथायोग्य उपादान करणों से अनभिज्ञ रहकर वह तदनुरूप कार्यों को उत्पन्न नहीं कर सकेगा। ईश्वर को स्वतन्त्र मानने पर ही वह स्वेच्छा से समस्त प्राणियों को सुख-दुःखादि का अनुभव करा सकता है। इसी प्रकार ईश्वर को नित्य, अजन्मा, अविनाशी और स्थिररूप न मानने पर अनित्य एक ईश्वर से दूसरे ईश्वर की, और दूसरे से तीसरे की उत्पत्ति होने लगेगी, फिर इस परम्परा का अन्त नहीं आ पाएगा और वह (मूल) ईश्वर अपने अस्तित्व के लिए पराश्रित हो जाएगा। ईश्वरवाद का पक्ष प्रस्तुत करते हुए गोम्मटसार में बताया गया है कि आत्मा अनाथ है उसका सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकगमन आदि सब ईश्वर के हाथ में है। . ईश्वरकर्तृत्ववाद अनुमान प्रमाण से इस प्रकार सिद्ध किया जाता है"स्थावर और जंगम (जड़-चेतन) रूप जगत् का कोई न कोई पुरुष- विशेष कर्ता है, क्योंकि पृथ्वी, वृक्ष आदि पदार्थ कार्य हैं। ये कार्य हैं, इसलिए किसी न किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा निर्मित है, जैसे घट आदि के निर्माण में कुम्भकार। पृथ्वी आदि भी विशिष्ट कार्य है, इसलिए ये भी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा बनाये हुए होने चाहिए। इनका जो बुद्धिमान् कर्ता है, उसी का नाम ईश्वर है।" १. ईश्वरकर्तृत्ववाद के सन्दर्भ में ईश्वर के इन विशेषणों की समीक्षा के लिये देखें स्याद्वादमंजरी के "कर्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स .नित्यः। कारिका की व्याख्या। २. कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.) से ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ८८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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