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________________ ३१४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२). . कदापि होने वाली नहीं। इस संसार में सुख और दुःख इस प्रकार अवस्थित हैं कि उन्हें परिमित पायली (द्रोण) से नापा जा सकता है। संसार में (उनमें) घटना-बढ़ना (हानि-वृद्धि) अथवा उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं हो सकता। जैसेसूत की गोली फैकने पर खुलती हुई उतनी ही दूर जाती है, जितना लम्बा उसमें धागा होता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख-संसार का अन्त इसी परिवर्त (आवागमन) में पड़कर होता है।" नियतिवाद का आध्यात्मिक रूप-नियतिवाद का एक और आध्यात्मिक रूप वर्तमान में आविष्कृत हुआ है। इसके अनुसार-"प्रत्येक द्रव्य की प्रति समय की पर्याय नियत-सुनिश्चित है। जिस समय जो पर्याय होनी है, वह अपने नियत स्वभाव के कारण होगी ही, उसमें प्रयत्न निरर्थक है। उपादान शक्ति से ही वह पर्याय प्रकट हो जाती है, निमित्त वहाँ स्वयमेव उपस्थित हो जाता है। उसके मिलाने की आवश्यकता नहीं।" ___इनके मत से पेट्रोल से मोटर नहीं चलती, किन्तु मोटर को चलना ही है और पेट्रोल को जलना ही है और यह सब प्रचारित हो रहा है-द्रव्य के शुद्ध स्वभाव के नाम पर। इसके भीतर भूमिका यह जमाई जाती है कि"एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता। सब अपने आप नियतिचक्रवश परिणमन करते हैं। जिसको जहाँ जिस रूप में निमित्त बनना है, उस समय उसकी वहाँ अपने आप उपस्थिति हो ही जाएगी। इस नियतिवाद से पदार्थों के स्वभाव और परिणमन का आश्रय लेकर भी उनका प्रतिक्षण का अनन्तकाल तक का कार्यक्रम बना दिया है, जिस पर चलने को हर पदार्थ बाध्य है। किसी को कुछ नया करने का नहीं है।". ___डॉ. महेन्द्रकुमार तथाकथित नियतिवाद के दुष्परिणाम के विषय में लिखते हैं-"इस तरह नियतिवादियों के विभिन्न रूप विभिन्न समयों में हुए हैं। इन्होंने सदा पुरुषार्थ की रेड मारी है और मनुष्यों को भाग्य के चक्कर में डाला है।" १. (क) मज्झिमनिकाय २/३/६ (ख) बुद्धचर्या (सामञफलसुत्त) पृ. ४६२-६३ (ग) बुद्धचरित पृ. १७१ (कौशाम्बी) २. (क) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) से उद्धृत (ख) इस प्रकार के नियतिवाद अपर नाम 'क्रमबद्धपर्यायवाद' के विशेष विवरण के लिए देखिये-वस्तुविज्ञानसार, क्रमबद्धपर्याय आदि (श्री कानजी स्वामी द्वारा लिखित) पुस्तकें। ३. (क) बुद्धचरित पृ. १९१ (कौशाम्बी) (ख) जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचाय) पृ. ८४ से उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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