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________________ कर्मवाद पर प्रहार और परिहार २९७ मुक्त अथवा ईश्वर हो जाते हैं।' अनेक ईश्वर हो जाने पर जगत् की व्यवस्था में गड़बड़झाला पैदा हो जाएगी। स्याद्वाद - मंजरी में इसी आशय की एक कारिका भी है। उक्त प्रहारों का क्रमशः परिहार प्रथम प्रहार का परिहार - यह जगत् अनादिकाल से है, किसी काल में नया नहीं बना है। हाँ, इसमें परिवर्तन अवश्य होते रहे हैं, होते रहते हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। अधिकांश परिवर्तन ऐसे भी होते हैं, जिनमें मनुष्य आदि प्राणिवर्ग का प्रयास अपेक्षित होता है। कई परिवर्तन ऐसे भी होते हैं, जिनमें किसी के प्रयास की अपेक्षा नहीं रहती। जड़ पदार्थों के विभिन्न प्रकार के संयोगों या वियोगों से उनमें स्वतः परिवर्तन उष्णता, वेग, क्रिया होते देखे जाते हैं। जैसे - इधर-उधर से पानी का प्रवाह मिल जाने से नदी रूप में बहना; मिट्टी पत्थर आदि वस्तुओं के एकत्रित हो जाने से छोटे-बड़े टीले या पर्वत का बन जाना, एवं भाप का पानी बन जाना, तथैव पानी का फिर से भापरूप बन जाना, समुद्र से सूर्यकिरणों द्वारा पानी खींचा जाने से आंकाश में मेघरूप बन जाना और उन बादलों का धरती पर बरसना एवं भूकम्प हो जाना; ये और ऐसे कई परिवर्तन स्वतः अनायास निर्मित हैं, जिनके निर्माण में ईश्वर या किसी प्राणी विशेष का हाथ नहीं है। और फिर घड़ा, कपड़ा आदि के निर्माण के साथ उसका कर्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष (अनुमान, आगम आदि प्रमाण) रूप में देखा जाता है, मगर सृष्टि के या सृष्टि के इन प्राकृतिक जड़ पदार्थों के परिवर्तन या निर्माण के साथ कदापि ईश्वर नाम का कोई चेतनाशील पुरुष नहीं देखा गया। बांध, पुल, सड़क, मशीनें आदि बनती हैं, उनके साथ तो कोई न कोई निर्माणकर्त्ता अवश्य ही देखा जाता है, अथवा पढ़ा- सुना जाता है। इसलिए ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता, निर्माता या उत्पादक मानने की कोई आवश्यकता नहीं । " द्वितीय प्रहार का परिहार - यह ठीक है कि कर्म जड़ हैं, और कोई भी प्राणी अपने द्वारा किये हुए बुरे कर्म का फल नहीं चाहता, परन्तु यह ध्यान · रखना चाहिए कि जीव (चेतन) के साथ संयोग होने से कर्म में स्वतः एक प्रकार की शक्ति पैदा हो जाती है; जिससे वह नियत समय पर जीव पर अच्छे-बुरे विपाकों (शुभाशुभकर्मफलों) को प्रकट करता है। अर्थात् - जो १. कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (पं. सुखलालजी) से साभार २. कर्त्ताऽस्ति कश्चिद् जगतः स चैकः, स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । - स्याद्वादमंजरी ३. विशेष विवरण के लिए देखिये - रत्नाकरावतारिका, स्याद्वादमंजरी, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्रकुमार) आदि ग्रन्थ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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