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कर्मवाद पर प्रहार और परिहार
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कर्मवाद पर प्रहार और परिहार)
यद्यपि कर्मवाद मनोविज्ञान, दर्शन, धर्मपरम्परा, भौतिक विज्ञान, शरीरशास्त्र, मानसशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि सभी पहलुओं से युक्ति, प्रमाण, अनुभव आदि के आधार पर सिद्ध सिद्धान्त है। विश्व की समस्त व्यवस्थाओं, विचित्रताओं, प्राणियों की विविध मनोदशाओं, शारीरिक अवस्थाओं, बौद्धिक विभिन्नताओं आदि के सम्बन्ध में युक्ति, तर्क, प्रमाण और अनुभव के आधार पर कर्मवाद को प्रस्तुत करता है। आधुनिक युग की विभिन्न समस्याओं और व्यवस्थाओं का समाधान भी जैनदर्शन कर्मवाद की दृष्टि से करता है। फिर भी "मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना, तुण्डे-तुण्डे सरस्वती, मुखेमुखे नवा वाणी" इस प्राचीन लोकोक्ति के अनुसार विश्व में प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में बुद्धि और विचारशक्ति की भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, प्रत्येक व्यक्ति के विद्याध्ययन, विद्वत्ता, पाण्डित्य अथवा शिक्षा-दीक्षा में भी अन्तर पाया जाता है और वस्तु तत्त्व को प्रकट करने की शैली, तथ्य को प्रस्तुत करने की वाणी, और संसार की विभिन्नताओं के कारणों को अभिव्यक्त करने के कथन में पर्याप्त विभिन्नता भी प्रतीत होती है।
जैनदर्शन द्वारा मान्य, सर्वज्ञ तीर्थकरों द्वारा विविध पहलुओं द्वारा पल्लवित-विकसित कर्मवाद जैसे सिद्धान्त पर भी ईश्वर को सृष्टि-कर्ता या प्रेरक मानने वाले दर्शनों, धर्म-सम्प्रदायों अथवा मत-पन्यों के कुछ आक्षेप है। वे.आक्षेप दूसरे पक्ष पर शान्तिपूर्वक विचार-विमर्श न करके ऐकान्तिक, और स्वकथन ही सत्य के हठाग्रहमूलक हो जाते हैं, तब वे शाब्दिक प्रहार का रूप ले लेते हैं। जब एकान्त-आग्रहवश मनुष्य अपने विचारों को ही सत्य मानकर तथा अपनी ही बात को खींच-तानकर सिद्ध करने पर तुल जाता है, अपने ही पक्ष के समर्थन में युक्तियों को खींचता है, दूसरे पक्ष की बात को अमुक अपेक्षा से सुनने-मानने को तैयार नहीं होता, तब वह एकान्त खण्डनात्मक आक्षेप, निन्दा, विरोध, वितण्डा और विद्वेष के शस्त्रों १. 'प्रमाणमीमांसा' से उद्धृत
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