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________________ कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्ममूलक सर्वक्षेत्रीय विकास २९३ कर्मशास्त्र किसी भी अच्छे-बुरे परिणाम की-कार्य की पष्ठभूमि की वास्तविक खोज करना सिखाता है। जीव की जो भी वर्तमान-कालिक अवस्था है, अथवा उसकी आकृति, प्रकृति, व्यवहार या आचरण है, वह ऐसा क्यों है ? इसके समाधान के लिए कर्मशास्त्र उसके मूल उद्म-उत्स की खोज करने की प्रेरणा देता है। कर्मशास्त्र प्रायः मुख्य-मुख्य वृत्तियोंप्रवृत्तियों के, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के बाह्य कारणों या बाह्य निमित्तों पर दोषारोपण न करके अथवा उसी में एकान्त आग्रही न बनकर उनके अन्तरंग कारण को ढूंढने की प्रेरणा देता है। वह श्वानवृत्ति की नहीं, सिंहवृत्ति की प्रेरणा देता है; अपने उपादान (आत्मा) को गहराई से टटोलने का सुझाव देता है। कर्मशास्त्र द्वारा धर्मध्यान का निर्देश ___ जैनागमों में धर्मध्यान के चार प्रकार बताए गए हैं-(१) आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, (३) विपाकविचय और (४) संस्थानविचय।' इन चारों का कर्मवाद से सम्बन्ध है। आज्ञा से मतलब है-जिनाज्ञा का। जिनाज्ञासम्मत कार्य करने से अशुभकर्म का बन्ध नहीं होता और न करने से होता है। पर जिनाज्ञा किन कार्यों के लिए है ? इसी प्रकार संस्थान-विचय में लोक के समस्त संस्थान और उसकी विभिन्न गतियों, योनियों में उत्पन्न होने का चिन्तन भी कर्मवाद से सम्बन्धित है। षद्रव्यात्मक लोक का चिन्तन करना भी उसका एक अंग है। परन्तु कर्मवाद से प्रबल सम्बन्ध विपाकविचय और अपाय-विचय का है। विपाक का अर्थ है-कर्म का परिणामफल और अपाय का अर्थ है-कोई न कोई अनिष्ट कारण। कर्मशास्त्र बताता है कि जब कोई विपाक-परिणाम-फल सामने है, तो उसका कोई न कोई कारण भी होना चाहिए। विपाक वर्तमान क्षण का पाक-फल है, और अपाय उस विपाक के पीछे रहा हुआ हेतु है-कारण है, जो दीर्घकालिक अतीत है। इन दोनों की खोज कर्मवाद के सन्दर्भ में साथ-साथ चलती है। तथ्यों की अथवा किसी घटना या आचरण आदि कार्यों की जानकारी के लिए, कर्मशास्त्र सुदूर दीर्घकालिक अतीत को देखना आवश्यक बताता है। अतीत को समझे बिना, वर्तमान के विपाक, परिणाम त्या कार्य को समझना अतीव दुष्कर है। अतः सर्वप्रथम अतीत को देखना अनिवार्य है, क्योंकि अतीत का परिणाम ही वर्तमान बनता है। धर्मध्यान का उल्लेख कर्मशास्त्रों में कर्मों १. (क) धम्मे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते तजहा-आणाविजए, अवायविजए, . विवागविजए, संठाणविजए।' -व्याख्याप्रज्ञप्ति श. २५ उ.७ । (ख) आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयायधर्म्यम् । -तत्त्वार्थसूत्र अ. ९, सू. ३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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