SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९० कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) या वैभाविक है, तब सहज ही यह जिज्ञासा होती है कि तब फिर आत्मा . का वास्तविक शुद्ध स्वरूप क्या है ? और तभी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन कृतकार्य होता है । कर्मशास्त्र इसी क्रम से आत्मा के परमशुद्ध स्वरूप तक पहुंचने का पथ-प्रदर्शन करता है। परमात्मा के साथ आत्मा का क्या और कैसा सम्बन्ध है ? यह जैसे अध्यात्मशास्त्र का विषय है, वैसे ही कर्मशास्त्र का भी है। वह घातिकर्म- चतुष्टयमुक्त अथवा अष्टविधकर्ममुक्त होने पर आत्मा का परमात्मस्वरूप बनने का प्रतिपादन करता है। आत्मा ही परमात्मा है, इस तथ्य का प्रतिपादन करके उसकी कर्मावृत एवं अनावृत अवस्था को लेकर कर्मशास्त्र आत्मा के तीन रूपों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के नाम से प्रतिपादन करता है। भगवद्गीता, उपनिषद्, योगवशिष्ठ, योगदर्शन आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में आत्मा से सम्बन्धित जैसे विचार मिलते हैं, वैसे ही विचार कर्मशास्त्र में भी पाये जाते हैं। कर्मशास्त्र की दृष्टि से आत्मा का परमात्मा में मिल जाने का फलितार्थ भी यही है कि अपनी कर्मावृत अवस्था को दूर करके शुद्ध होकर परमात्मभाव को व्यक्त करना, आत्मा का परमात्मरूप हो जाना। जीव परमात्मा का अंश है, इसका अभिप्राय भी कर्मशास्त्र की दृष्टि से यह है कि जीव में ज्ञान-दर्शन-आनन्द-शक्ति को जितनी कला व्यक्त है, वह परिपूर्ण किन्तु अव्यक्त (आवृत) चेतनचन्द्र की पूर्णकलाओं का एक अंश भर है। कर्मों का आवरण दूर हो जाने से चेतनचन्द्र पूर्णरूप से अनावृत - व्यक्त हो जाता है। कर्मशास्त्र जीव को कर्मों में बंधे रहने की प्रेरणा नहीं देता, किन्तु वह कर्मों से बंधी हुई आत्मा को उसके कर्मबद्ध रूप का ज्ञ-परिज्ञा से ज्ञान करा कर, प्रत्याख्यान- परिज्ञा से कर्मों से मुक्त होने, उन्हें क्षय करने की प्रेरणा देता है। शरीर, इन्द्रियाँ, बाह्य सुख सामग्री, धन- कुटुम्ब, मकान आदि पर-पदार्थों में आत्मबुद्धि अर्थात् - सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों में अहत्वममत्वबुद्धि करना बहिरात्मा का लक्षण बताकर कर्मशास्त्र बहिरात्मभाव को छोड़ने की ही प्रेरणा देता है। जिनके संस्कारों में बहिरात्मभाव कूट-कूटकर भरा हो, उन्हें भले ही कर्मशास्त्र की यह शिक्षा रुचिकर न लगे, परन्तु उसके द्वारा सत्य तथ्य में किंचित् भी अन्तर नहीं पड़ता । आत्मा के स्वभाव को छोड़कर परभावों में मन वचन काया को रमण कराने वाले, तथा विषय कषायों में डूबे हुए उनके फलस्वरूप शुभाशुभ कर्म बाँधने वाले लोगों को कर्मशास्त्र उन सबके अनिष्ट परिणाम, जन्म-मरणादि दुःखाक्रान्त संसार में परिभ्रमण की चेतावनी भी देता है। कर्मशास्त्र शरीर और आत्मा की या स्वभाव - परभावों की अभिन्नता के भ्रम को मिटाकर भेदविज्ञान (विवेक - ख्याति) को जागृत करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy