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________________ कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा २७३ साक्षात् फल हैं। फलितार्थ यह है कि वर्तमान में उपलब्ध समग्र कर्मशास्त्र शब्दरूप से नहीं तो, भावरूप से भगवान् महावीर के द्वारा गणधरदेवों के समक्ष साक्षात् उपदिष्ट है। . दूसरा अभिमत यह भी है कि समस्त अंगशास्त्र (द्वादशांगी) भावरूप से भगवान् महावीरकालिक ही नहीं, अपितु पूर्व-पूर्व में हुए अन्यान्य तीर्थकरों से भी पूर्व-काल के हैं। अर्थात् वे अनादि हैं। किन्तु प्रवाहरूप से अनादि होते हुए भी समय-समय होने वाले तीर्थंकरों द्वारा वे अंगशास्त्र (अंगविद्याए) नया नया रूप धारण करती रहीं। गणधरदेव अर्थरूप (भावरूप) से उपदिष्ट अंगविद्याओं को शब्दबद्ध, सूत्रबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से संकलित-ग्रथित करते हैं। कर्मवाद सम्बन्धी सांगोपांग वर्णन का मूलस्रोत यद्यपि जैन-आगमों में से कोई भी आगम या द्वादशांगी के दृष्टिवाद को छोड़कर ग्यारह अंगों में से कोई भी अंगशास्त्र ऐसा नहीं है, जिसमें केवल कर्मवाद सम्बन्धी विस्तृत विवेचन हो। वर्तमान में उपलब्ध जैन-आगमों में जैनकर्मवाद का स्वरूप एवं विवेचन अमुक प्रमाण में किसी एक दो अध्ययन, शतक या उद्देशक में छुटपुट रूप से हुआ है, वह भी बहुत ही संक्षेप में। अतः इतने अल्प प्रमाण में उपलब्ध विवेचन कर्मवाद के महत्त्व एवं रहस्य को उजागर करने में अंगरूप नहीं बन सकता। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, और उठना भी चाहिए कि जैनदर्शन के प्राणरूप कर्मवाद की विस्तृत व्याख्या का मूलस्रोत कौन-सा है? जैन कर्मवाद के पुरस्कर्ताओं एवं व्याख्याताओं का कहना एवं मानना है कि जैनकर्मवाद के तत्त्वों पर मौलिक एवं विस्तृत समग्र व्याख्या का, दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, जैनदृष्टि से कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का मूल स्रोत 'कर्मप्रवाद-पूर्व नामक महाशास्त्र है। कर्मप्रवाद पूर्व गणधरदेव द्वारा संकलित एवं शास्त्ररूप में ग्रथित (निबद्ध) चौदह पूर्व शास्त्रों में से आठवौं पूर्वशास्त्र है। 'कर्मप्रवाद' नाम से ही स्पष्ट बोध होता है कि . इसमें कर्मवाद' अथवा कर्मतत्त्व से सम्बन्धित सांगोपांग एवं विस्तृत वर्णन ____ इसके अतिरिक्त 'अग्रायणीय' नामक द्वितीय पूर्व के एक विभाग का नाम था-कर्मप्राभृत (कम्म-पाहुड), तथा पंचम पूर्व के एक विभाग का नाम १. अत्यं भासई अरहा, सुत्त गथंति गणहरा। २. प्रमाणमीमांसा पृ. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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