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________________ ६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) भाव से राग-द्वेष करता है तो ये पदार्थ निमित्त बन जाते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि जो भी सुख-दुःख आदि प्राप्त होते हैं वे अपने द्वारा किये हुए कर्मों के द्वारा होते हैं । अर्थात् जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे चेतनाकृत (आत्मा द्वारा कृत) होते हैं, अचेतनाकृत नहीं। जब आत्मा (जीव) इस तथ्य को भलीभांति समझ लेता है तब वह एक ओर से अपने साथ लगे हुए पूर्वकृत कर्मों को निर्जरा के विभिन्न प्रयोगों से रत्नत्रय रूप सद्धर्म के आचरण से, तप-संयम से क्षय करने का पुरुषार्थ करता है और दूसरी ओर नये आते हुए कर्मों को रोकने का, कर्मों के आगमन के कारणों से दूर रहने का तथा सावधान एवं अप्रमत्त रहने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार वह आत्मा स्वयं उदीरणा, गर्हणा, संवर एवं निर्जरा द्वारा कर्मों को काटकर जीव मुक्त या परम शुद्ध-सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है। इस दृष्टि से कई दार्शनिक या नास्तिक मतवादी कह देते हैं कि आत्मा किसी भी प्रकार घट-पट आदि की तरह प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देती, तब हम कैसे मान लें कि आत्मा विभिन्न कर्मों को करती है और उसके फलस्वरूप सुख-दुःख आदि प्राप्त करती है ? पहले आत्मा का अस्तित्व तो सिद्ध हो। माना जा सकता है कि आत्मा स्वयं कर्म बांधती है और उनका फल भी स्वयं भोगती है । फिर सम्यग्ज्ञान एवं जागरण होने पर वह स्वयं ही कर्मों का निरोध एवं क्षय करने का पुरुषार्थ करती है । अतः कर्म का अस्तित्व सिद्ध करने से पूर्व आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करना अनिवार्य है । आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ही कर्म के अस्तित्व का परिचायक सिद्ध होगा । वास्तव में गणधरवाद' में जितनी भी चचाएँ हैं, वे सब आत्मा और कर्म के अस्तित्व से सम्बन्धित हैं। आत्मा किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं : इन्द्रभूति गौतम की शका विशेषावश्यक भाष्य के अन्तर्गत गणधरवाद में प्रथम गणधर इन्द्रभूति की शंका यही थी कि जीव (आत्मा) किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता । १. (क) सयमेव कडेहिं गाहइ नो तस्स मुच्चेजऽपुट्ठयं ।।-सूत्रकृताग १/२/१४ (ख) जीवाणं. चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति ।। -भगवती सूत्र १/६२ २. (क) तुम॒ति पावकम्माणि नवं कम्ममकुव्वओ ।। -सूत्रकृतांग १/१५/६ (ख) अप्पणा चेव उदीरेइ अप्पणा चेव गरहइ अप्पणा चेव संवरइ ।। -भगवती १/३ ३. इसके विस्तृत विवरण के लिए देखिये-गणधरवाद की प्रस्तावना (पं. दलसुख मालवणिया) पृ. ७४ ४. विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) मा. १५४९ (अनुवाद) पृ. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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