SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद का तिरोभाव- आविर्भाव : क्यों और कब २५७ इस प्रसंग में तथा पूर्वप्रसंग में भी घोर संकट, मरणान्तक कष्ट, एवं उपसर्ग के समय तीर्थंकर नेमिनाथ ने किसी ईश्वर, देवी- देव, या किसी शक्ति से सहायता की प्रार्थना करने, उसे मनाने या उसके द्वारा दूसरे को मुक्त करने की बात नहीं की, बल्कि उन्होंने दुष्कर्मों के फल की, साथ ही पूर्वबद्ध (९९ लाख जन्मों पूर्व बाँधे हुए) कर्मों को समभाव से क्षय करने, आत्म-स्वरूप में तन्मय होने तथा शुक्लध्यान के द्वारा आत्म-ज्योति में लीन होकर समस्त कर्मों से रहित सिद्ध बुद्ध मुक्त परमात्मा हो जाने की बात कही। ये प्रसंग भी उनके द्वारा तिरोहित हुए कर्मवाद के आविष्करणआविर्भाव को द्योतित कर रहे हैं। - भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा तिरोहित कर्मवाद का आविर्भाव बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ के मुक्त हो जाने के बाद भगवान् पार्श्वनाथ के समय तक में कर्मवाद को लोग लगभग भूल गए थे। कर्मवाद के मूल सिद्धान्तों पर विस्मृति की धूल पड़ चुकी थी। उस युग में तापसों का प्रबल प्रभाव था। आम जनता उनके बाह्याडम्बर, पंचाग्नि तप, धूनी में काष्ट-प्रज्वालन तथा विविध प्रकार के वरदान और शाप के दौर, भूतभविष्य-कथन आदि के वाग्जाल को देखकर प्रभावित होती थी। वाराणसी का अंचल उस समय तापसों का केन्द्र था। नदी तटों पर और सुरम्य वनों में सैकड़ों हजारों तापस मठ, आश्रम या कुटी बनाकर विचित्र-विचित्र प्रकार के अज्ञानयुक्त कठोर क्रियाकाण्ड, आडम्बर और मायाचार फैलाए बैठे थे । प्रज्वलित अग्नि में, प्रज्वलित काष्टों में एवं विविध अज्ञानमूलक तप के आचरण से, एवं जरा-जरा-सी बात पर रोष, द्वेष, अहंकार एवं शाप का प्रदर्शन करने से तथा हिंसाजनक कृत्यों से होने वाले अशुभ कर्मबन्ध और उनसे भविष्य में प्राप्त होने वाले कष्टदायक कर्मफल से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे । जनता भी अन्धविश्वास, पाखण्ड और आडम्बर की चकाचौंध में पड़कर कर्म सिद्धान्त को भुला बैठी थी। . कर्म-सिद्धान्त के इस प्रकार के तिरोभाव के युग में भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। जन्म से ही उन्हें तीन ज्ञान थे। इस कारण उनकी प्रतिभा शक्ति, निर्णयशक्ति, विश्लेषणशक्ति, निरीक्षण-परीक्षणशक्ति काफी विकसित थी। वे अज्ञान और अन्धविश्वास, कुरूढ़ियों और कुप्रथाओं में जकड़े हुए मनुष्यों को दुःखित पीड़ित देखकर दयार्द्र हो उठते थे। असत्य और पाखण्डों को देखकर वे कर्मवाद पर गहराई चिन्तन करते फिर अपने मित्रों और सेवकों के समक्ष उनका प्रतिवाद करते और असत्य और पाखण्ड मादि से होने वाले कर्मबन्ध और प्राप्त होने वाले कठोर परिणाम का तत्त्व समझाते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy