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________________ कर्मवाद का आविर्भाव २४३ दूसरे दूसरे प्राणिवर्ग की बात तो दूर रही, केवल मानव जगत् में भी शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण के तारतम्य, शक्ति - अशक्ति, न्यूनाधिक योग्यता, न्यूनाधिक सुख-दुःख, धनी - निर्धन, रोगी नीरोग, मन्दमति - प्रखरमति आदि को लेकर जो विभिन्नताएँ एवं विरूपताएँ हैं, उनके कारणों की भी खोज-बीन की गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। वेदों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम वेदकालिक ऋषियों ने इन्द्र, वरुण, मरुत्, अग्नि, यम, सविता आदि अनेक देवों की एवं तत्पश्चात् प्रजापति ब्रह्मा जैसे एक देव की परिकल्पना की। फिर उन देवों से स्वर्ग, पुत्र, स्त्री, पशु, वृष्टि, धन-धान्य, सुरक्षा आदि भौतिक सुखसामग्री की प्राप्ति की लौकिक मनोकामना पूर्ण करने हेतु स्तुति की गई । वेदों में बताया गया कि सुखी एवं सम्पन्न होने के लिए अथवा अपनी समृद्धि के लिए या शत्रुओं से अपनी और अपनों की सुरक्षा के लिए अथवा शत्रुओं का नाश करने के लिए तथा दुष्टों का दमन करने के लिए अमुक-अमुक देव या देवों की स्तुति एवं मनौती करे । तदनन्तर कहा गया कि उस उस भोग्य सामग्री की शीघ्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करे, और उसमें सजीव या निर्जीव अभीष्ट पदार्थ अर्पण करे। ऐसा करने से देवता सन्तुष्ट और तृप्त होकर उसकी मनोवांछा पूर्ण करते हैं। निष्कर्ष यह है कि वैदिक समस्त अनुष्ठान या तत्त्वज्ञान देववाद और यज्ञवाद में केन्द्रित होकर पुष्पित फलित हुआ । विविध देवों को अपनी विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रसन्न करने का तथा उसके साधन के रूप में यज्ञ कर्म का क्रमशः विकास हुआ। कालक्रम से यज्ञ यागों का विधि-विधान इतना जटिल और दुरूह हो गया कि साधारण व्यक्ति भी यज्ञ करना चाहता तो यज्ञकर्म में पूर्ण निपुण याज्ञिक पुरोहितों के बिना सम्भव नहीं था। इस प्रकार देववाद और यज्ञवाद के साथ पुरोहितवाद का भी बोलबाला हुआ। जो व्यक्ति जितने अधिक यज्ञ कराता, वह उतना ही बड़ा, पुण्यशाली और स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञकर्म के प्रोत्साहन के लिए - 'पुत्रकामो यजेत', 'वृष्टिकामो यजेत', 'राज्यकामो यजेत', 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वैदिक वाक्य प्रस्तुत किये जाते। यह मान्यता वेदवाद (देववाद, यज्ञवाद एवं पुरोहितवाद) से लेकर ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रणयन-काल के प्रारम्भ तक विकास पाती रही। इस काल के अन्त तक वेदों की रचना पूर्ण हो चुकी थी, फिर ब्राह्मण ग्रन्थों (गृह्यसूत्रों आदि) की रचना हुई। इसमें भी यज्ञादि अनुष्ठानों की विधियों, याज्ञिकों की योग्यता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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