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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में २३१ थे। प्रवर्तकधर्म की इस प्रबलता के कारण निवर्तक धर्म कुछेक व्यक्तियों तक सीमित और प्रवर्तक धर्मवादियों की ओर से उपेक्षित भी रहा।
निवर्तक धर्मवादियों को उस समय प्रवर्तक धर्मवादियों के द्वारा समय-समय पर होने वाले विरोध, निन्दा, तिरस्कार, उपेक्षा और प्रहार आदि के कड़वे पूंट भी पीने पड़े हैं। प्रवर्तक धर्मी याज्ञिकों द्वारा विरोध और प्रहार के प्रमाणबीज 'उत्तराध्ययन' आदि आगमों में यत्र-तत्र मिलते हैं।'
पाणिनि ने अपने द्वारा रचित व्याकरण (भट्टोजी दीक्षित द्वारा सम्पादित वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी) द्वन्द्वसमास के सन्दर्भ में येषा च शाश्वतिको विरोधः' (जिनका शाश्वत विरोध हो) इस सूत्र के उदाहरण के रूप में ब्राह्मण-श्रमणम्, अहि-नकुलम् (जैसे-ब्राह्मण और श्रमण, सांप और नेवला) आदि शब्द प्रस्तुत किये हैं।
परन्तु विभिन्न परम्पराओं के निवर्तक धर्मवादियों ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहकर ज्ञान, ध्यान, तप, योग, क्षमादि धर्म, तथा अणुव्रतमहाव्रत, संयम, नियम आदि आत्मशुद्धि-साधक अन्तरंग साधनाओं का निष्ठापूर्वक इतना अधिक विकास किया, तथा सवर्ण-असवर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक जाति और धर्म-सम्प्रदाय के स्त्री-पुरुषों को इन साधनाओं में सम्मिलित किया कि प्रवर्तकधर्म की जड़ें हिल उठीं। प्रवर्तक धर्म का प्रभाव क्षीण होने लगा, समग्र समाज तथा गृहस्थवर्ग एवं त्यागीवर्ग पर निवर्तक धर्म एक तरह से जादू की तरह छा गया। आबाल-वृद्ध लोगों की जिह्वा पर निवृत्तिधर्म की ही चर्चा होने लगी, उस युग का रचित साहित्य भी निवृत्ति के (त्याग-वैराग्य, तप-संयम के) रंग में रंगा हुआ प्रकाशित-प्रचारित होने लगा।
निवर्तकधर्मवादियों को भी जनसमूह की विभिन्न समस्याओं तथा अटपटे प्रश्नों के समाधान के लिए आत्मा-परमात्मा, कर्मबन्ध और कर्मक्षय, तथा मोक्ष और उसके साधनों एवं आत्मशुद्धि के उपायों के विषय में चिन्तन-मनन, ऊहापोह करना ही पड़ता था। इस कारण निवर्तक धर्मवादियों का प्रभाव झोंपड़ी से लेकर महलों तक, शूद्रवर्ग से लेकर ब्राह्मणवर्ग पर, और बालक-युवक-वृद्ध वर्ग पर अचूक रूप से पड़ा। १. (क) उत्तराध्ययनसूत्र अ. १२ गा. ४ से ७, तथा १८, १९
(ख) वही, अ. १४ इषुकारीय गा. ७ से १५ तक
(ग) वही, यज्ञीय अ. २४ गा. ६ से ३० तक २. वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी (द्वन्द्वसमास प्रकरण) ३. (क) देखिये उत्तराध्ययनसूत्र का हरिकेशीय (अ. १२) और चित्तसम्भूतीय अध्ययन
(१३)। (ख) अन्तकृद्दशांग-अर्जुनमाली एवं अतिमुक्तककुमार का वर्ग.
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