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२२८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
कषायादि-जनित होने से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के मुख्य उपायसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्-तप माने गए। इन्हीं की साधना के रूप में स्वाध्याय, ध्यान, सुश्रद्धा, महाव्रत-अणुव्रत, तप संयम, समभाव, परीषहजय, क्षमादि दशविध धर्म आदि माने गए। निवर्तक कर्मवादियों द्वारा मोक्ष पुरुषार्थ के विषय में विशेष चिंतन
निवर्तक धर्मवादियों ने जब मोक्ष के स्वरूप और मोक्ष प्राप्ति के विविध उपायों के विषय में गहराई से चिन्तन-मनन और विश्लेषण किया, तब उन्हें उनके साथ-साथ कर्मवाद पर भी गहन मनोमन्थन करना पड़ा। तीर्थंकरों और उनके पश्चात् महान् ज्योतिर्धर चतुर्दश-पूर्वधारक गणधरों एवं ज्ञानी आचार्यों ने कर्म-सिद्धान्त के विषय में अपने जो अनुभव प्ररूपित किये थे, "पूर्व" नामक शास्त्रों में जो गुम्फित हुए थे, उनके आधार पर परवर्ती आचार्यों एवं कर्मशास्त्रियों ने कर्म के स्वरूप, प्रकार, उनकी विविध प्रकृतियाँ, तथा उनके स्वरूप तथा कर्मबन्ध के कारणों और विविध कर्मों के बन्ध से मुक्त होने, अशुभ को शुभ में तथा शुभकर्म को अशुभ-कर्म में परिणत होने के कारणों पर विचार किया, सबकी परिभाषाएँ और व्याख्याएँ सुनिश्चित कीं। कर्म की फलगत शक्तियों का विवेचन किया। कर्मों के विपाकों की अवधि के सम्बन्ध में निरूपण किया। कर्मों के पारस्परिक सम्बन्धों पर भी चिन्तन किया। आत्मा की कर्म-क्षयकारक शक्ति आदि का भी विचार किया। निष्कर्ष यह है कि कर्मतत्त्व से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर सांगोपांग क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित विचार किया।
__ इस प्रकार निवर्तक धर्मवादी जैनमनीषियों के कर्मतत्त्वविषयक व्यवस्थित चिन्तन-मनन एवं निरूपण से क़र्म-शास्त्र का प्रामाणिक एवं सांगोपांग निर्माण हो गया। इसके पश्चात् भी उत्तरोत्तर नये-नये प्रश्नों एवं विवादों के उभरने पर उनके समुचित समाधानों से कर्म-सिद्धान्त अधिकाधिक पल्लवित-पुष्पित होता गया। यही दल आगे चलकर श्रमण धर्म, संन्यास मार्ग, योगमार्ग, परिव्राजकवर्ग, तपस्वीगण आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ। समस्त निवर्तक धर्मवादियों द्वारा मोक्ष को सर्वोच्च स्थान
सभी निवर्तक धर्मवादियों के चिन्तन ने पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष को सर्वोच्च स्थान दिया और उसी दिशा में अपनी समग्र विचारधारा और १. नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । ___एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।
-उत्तरा अ. २८, गा.२ २. स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः । तपसा निर्जरा च ।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ९ सू. २-३
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