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________________ अध्यात्म-शक्तियों के विकास का उत्प्रेरक : कर्मवाद २१३ जितने भी अर्हत् (वीतराग) परमात्मा होते हैं वे सहाय निरपेक्ष होकर अपनी आत्मशक्ति के बल पर ही कर्मक्षय करके परम (परमात्म) पद को प्राप्त करते हैं।" कर्म-मुक्ति के उस अमर साधक ने इन्द्र से कहा "इन्द्र ! कोई भी साधक किसी देव, इन्द्र या चक्रवर्ती आदि की सहायता के बल पर न तो अतीत में कर्ममुक्त पूर्ण परमात्मा हो सका है, न ही वर्तमान में हो सकता है, और न भविष्य में ही हो सकेगा । " " यह था, भारत के महान् आत्मनिष्ठ महापुरुषों का उच्च आदर्श ! उन्होंने पूर्वकृत कर्मों से मलिन आत्मा को पूर्ण शुद्ध परमात्मा बनाने के लिए अपने सत्पुषार्थ से, अनन्त आत्मशक्ति, पूर्ण आत्मज्ञान- दर्शन, एवं पूर्ण आनन्द की साधना का आश्रय लिया। और जगत् को भी उन्होंने अध्यात्म की पूर्णता के लिए कर्मवाद को जानने तथा नवीन कर्मों के आगमन को रोकने (संवर) और पूर्वकृत कर्मों के क्षय करने (निर्जरा) का महत्वपूर्ण उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि कर्मवाद के रहस्य को जानेसमझे बिना अध्यात्मवाद का यथार्थ परिज्ञान तथा आत्मा के परिमार्जनपरिष्करण का बोध नहीं हो सकता। उन्होंने जगत् के समक्ष अपनी अनुभवसिद्ध वाणी में कहा "आत्मा ही अपने कृतकर्मों के अनुसार विविध गतियों और योनियों . में भटकता है" और "अपने ही पुरुषार्थ से कर्म-परम्परा का सर्वथा उच्छेदकर सिद्ध बुद्ध और मुक्त परमात्मा बनता है। " ३ यही कारण है कि भारत के सभी आस्तिक दार्शनिकों, धर्म-धुरन्धरों एवं अध्यात्मविज्ञों ने किसी न किसी रूप में कर्मवाद की चर्चा - विचारणा की है। यद्यपि कर्म के स्वरूप निर्धारण में प्रत्येक दर्शन और धर्म में मत - विभिन्नता रही है, फिर भी आत्मा के पूर्ण विकास के लिए प्रायः सबने बताया कि "आत्मा जब कर्मों से मुक्त हो जाता है, तभी वह परमात्मा बनता है।"४ अतः कर्म - विज्ञान को हृदयंगम किये बिना कोई भी साधक अध्यात्म-विकास के सर्वोच्च शिखर तक नहीं पहुँच सकता, यह निर्विवाद सिद्ध है। १. "इन्दा ! न एवं भूयं, न एवं भव्वं, न वा भविस्सई ... २. जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइइ, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ॥ ३. जूहू य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेन्ति । ४. अप्पो वि य परमप्पो, कम्म-विमुक्तो य होइ फुडं । Jain Education International 1 - महावीर चरिय - सूत्रकृतांग १२/१/४ - औपपातिक - भावपाहुड १५१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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