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________________ कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित २०५ कर्म को मरणोत्तर जीवन में अनुगामी मानने से लाभ आस्तिकता का महत्वपूर्ण अंग है - मरणोत्तर जीवन । मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को आज तो परामनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा सिद्ध करके बता दिया है। इस आस्था को अक्षुण्ण रखने से जो इस जन्म में नहीं पाया जा सकता, वह अगले जन्म में अवश्य मिल जाएगा, यह सोच कर मनुष्य बुरे कर्मों से बचा रहता है और सत्कर्म करने के उत्साह को बनाये रहता है। तत्काल भले-बुरे कर्मों का फल न मिलने के कारण जो निराशा उत्पन्न होती है, उसका समाधान पुनर्जन्म की मान्यता पर दृढ़ विश्वास रखे बिना नहीं हो पाता । कर्म का मरणोत्तर जीवन में अस्तित्व न मानना कितना अहितकर ? मरणोत्तर जीवन की सच्ची घटनाएँ कर्म और कर्मफल के अस्तित्व को तो सिद्ध करती ही हैं, साथ ही मानव जाति को उत्कृष्ट चिन्तन के . कितने ही उत्कृष्ट आधार प्रदान करती हैं। आज कोई हिन्दू है, भारतीय है या उच्च जातीय व्यक्ति है, कल को अगले जन्म में वह कर्मफलानुसार ईसाई, मुस्लिम, यूरोपियन या नीच जातीय भी बन सकता है अथवा दुष्कर्मों के फलस्वरूप वह चण्डकौशिक आदि की तरह सांप, भेड़िया, ऊँट, बकरा आदि भी बन सकता है। फिर क्यों इस सिद्धान्त को न मानकर व्यक्ति अनैतिक एवं स्वच्छन्द प्रवृत्ति करे और अपने लिए विपत्ति के बीज बोए ? आज का सत्ताधीश या उच्चकुलीन मानव कल अपने निकृष्ट कर्मानुसार सामान्य जन, अछूत या पशु बन सकता है। वह अनैतिक व्यवहार, स्वेच्छाचार या पापयुक्त कर्म उसके भावी जीवन के लिए कितना अनिष्टकर, दुःखद एवं अहितकर होगा ? यह सोचकर कौन समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति कर्म के यथातथ्य सिद्ध होने वाले अस्तित्व को मानने से इन्कार करेगा कर्म के अस्तित्व के प्रति आस्था - संकट से बचिये अतः दीर्घदर्शी, विचारशील एवं जनहितैषी व्यक्तियों को चाहिए कि कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के प्रति वर्तमान में आए हुए आस्था- संकट से बचकर चलें, दुष्कर्मों से अपनी आत्मरक्षा करें, अपनी स्थिति, क्षमता और शक्ति के अनुसार अनिवार्य सत्कर्मों को करें और समस्त कर्मों से मुक्त होने के लक्ष्य की ओर बढ़ें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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