________________
२०२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) जाते हैं, उस समय वे कर्म एवं कर्मफल के अस्तित्व को मानने के लिए बाध्य हो जाते है। क्रूरकर्मा व्यक्ति भी मृत्यु के समय स्वकृत-दुष्कर्म-फल के भय से सत्रस्त
'उत्तराध्ययन सूत्र' में बताया गया है कि जो लोग कर्म और परलोक में उसके मिलने वाले फल को न मानकर इन सबको बेकार समझते हैं। उन नास्तिकों की दृष्टि में कामभोगों के वर्तमान में हस्तगत सुख ही जीवन की सफलता के केन्द्रबिन्दु हैं जो भविष्यकालीन सुख है, वह अभी परोक्ष है, दूर है, उस पर उसे कतई विश्वास नहीं होता। वह सोचता है-किसने परलोक देखा है ? किसे याद है- भूतकाल का सुख ? इस मान्यता से प्रेरित होकर जो लोग हिंसादि पापकर्मों में रत रहते हैं, वे कर्ममल संचित होने पर अन्तिम समय में किसी भयंकर रोग या आतंक से आक्रान्त होने पर खिन्न होकर अत्यन्त परिताप करते हैं। वे इस जीवन में किये हुए पाप कर्मों को याद करके बेचैन और शोकमग्न होकर सोचने लगते हैं कि "मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जहाँ तीव्र वेदना है। जो शील से रहित क्रूर कर्मा अज्ञानी जीवों की गति है।"..... "इस प्रकार मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव उसी प्रकार शोक, पश्चात्ताप करता रहता है, जैसे कि धुरी टूट जाने पर गाड़ीवान करता है। इस प्रकार मरणोत्तर जीवन में कर्म और कर्मफल के अनुगमन को न मानने वाला क्रूरकर्मा अज्ञानी जीव मृत्यु के समय परलोक के भय से अत्यन्त संत्रस्त होता है।" आशय यह है कि क्रूरकर्मा व्यक्ति भी अन्तिम समय में कर्म और कर्मफल के अस्तित्व को बाध्य होकर अव्यक्त रूप से मान लेता है। सिकन्दर अन्तिम समय में स्वकृत दुष्कर्मफल से त्रस्त
इतिहास-प्रसिद्ध सिकन्दर जब मरणासन्न था, तब उसने अपने सब मंत्रियों, विद्वानों तथा मौलवियों आदि से पूछा-"मैंने जिन्दगी में इतने क्रूरकर्म करके आधी दुनिया पर जो विजय पाई है तथा आधी दुनिया की दौलत इकट्ठी की है, क्या यह मेरे साथ परलोक में नहीं जाएगी ?" इस पर उन्होंने स्पष्ट कहा- “हजूर ! आपके साथ तो एक तागा भी नहीं जाएगा। आपके अच्छे-बुरे कर्म ही आपके साथ जाएँगे।" यह सुनकर सिकन्दर बहुत रोया और पछताने लगा-"हाय ! मुझे यह मालूम होता कि मेरे साथ परलोक में न धन जाएगा, न जमीन और न कोई ऐश-आराम का सामान, तो मैं इतनी उखाड़-पछाड़ क्यों करता ? क्यों इतने लोगों को सताकर, मारकर तथा त्रस्त करके इतने देश जीतता, किसी की हत्या करता और इतना धन इकट्ठा करता। अब तो यही हो सकता है कि दुनिया को नसीहत
१. अखण्ड ज्योति, मई १९७६ से साभार सार संक्षिप्त २. उत्तराध्ययन सूत्र अ. ५ गा. ५ से १६ तक का सारांश
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org