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________________ २०० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) . . जीवन नहीं है। आत्मा की जीवनयात्रा अनेक गतियों और योनियों के शुभ-अशुभ कर्म-संस्कारों को साथ में लिये हुए चलती है। इसलिए इस जन्म में सदाचारी, धर्मनिष्ठ, पवित्र, अहिंसा-सत्यमय जीवन जीने वाले महान् व्यक्तियों और सतियों पर यदि कोई संकट, दुःख एवं कष्ट आता है या आया है तो समझना चाहिए कि यह उनके किसी पूर्वजन्मकृत अशुभकर्म का फल है। पूर्वजन्मों में किये हुए दुष्कर्मों के फलस्वरूप कई व्यक्ति जन्म से ही अंधे, लूले, लंगड़े, कुबड़े, अपंग एवं बैडोल होते हैं। अष्टावक्र पवित्र, सदाचारी, ज्ञानी एवं सरलतम व्यक्ति थे, फिर भी उनके आठ अंग जन्म से ही टेढ़े-मेढ़े थे। दुःखविपाक सूत्र में बताया गया है कि मृगालोढ़ा राजा का पुत्र था, उसका शरीर जन्म से ही फुटबाल की तरह गोलमटोल मांसपिण्ड था। उसके सारे शरीर में सड़ान हो गई थी, जिससे इतनी दुर्गन्ध आती थी, कि पास में खड़ा रहना भी कठिन था। वह न तो स्वयं खा-पी सकता था और न ही उसको खाया हुआ पचता था। उसकी माँ (मृगारानी) ममतावश उसके मुँह में कौर देती थी, मगर वह भी मवाद बनकर सड़ जाता था। बताइए, जन्म से ही मृगालोढ़ा की ऐसी दुर्दशा क्यों हुई, जबकि उसने इस जन्म में कोई भी दुष्कर्म नहीं किया था ? स्पष्ट है कि यह उसके पूर्वजन्मकृत भयंकर दुष्कर्मों का फल था। अतः कर्म के अस्तित्व के विषय में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इनकी जन्म से विलक्षणता में कर्म ही कारण है। कई लोग जन्म से ही दरिद्र, विपन्न, मानसिक दृष्टि से अविकसित देखें जाते हैं। इसमें उनका इस जन्म का कोई दुष्कर्म या दोष नहीं होता। इसी प्रकार कई लोग जन्म से ही प्रतिभाशाली, कलाकुशल, प्रखर बुद्धिशाली एवं उत्तराधिकारजन्य सम्पन्नता आदि से युक्त होते हैं। उनकी इन विशेषताओं के पीछे इस जन्म का कोई पुरुषार्थ या अभिभावकों का सहयोग अथवा अनुकूल परिस्थिति भी कारण नहीं होती। अतः मानना होगा कि इन सब विशेषताओं के पीछे पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही कारण है। अतः कर्म के अस्तित्व में दृढ़ श्रद्धा रखने वाले दूरदर्शी, विचारशील व्यक्तियों की तरह कष्टों और विपत्तियों के आ पड़ने पर भी न तो कर्म और कर्मफल के अस्तित्व के प्रति अनास्था प्रगट करनी चाहिए और न ही निमित्तों को कोसना चाहिए, बल्कि आए हुए संकट और कष्ट को पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल मानकर समभाव से शान्तिपूर्वक सह लेना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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