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________________ १८६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) कर्म के अस्तित्व के प्रति आस्थाहीन दो वर्ग इस प्रकार कर्म के अस्तित्व को न मानने वाले दो वर्ग बन जाते हैंएक वर्ग ऐसा है, जो परम्परा से कर्म और कर्मफल की बात सुनता आया है, पर इस समय उसकी आस्था कर्म के अस्तित्व के प्रति संशयग्रस्त हो गई है। दूसरा वर्ग - बिलकुल नास्तिक है। वह कर्म के अस्तित्व के विषय में संशय-सागर में मग्न होकर उल्टे-सीधे कुतकं करता है, और कर्म के अस्तित्व से सर्वथा इन्कार करता है। प्रथम वर्ग की अश्रद्धा का कारण प्रथम वर्ग के लोग कर्म के अस्तित्व से सर्वथा इन्कार तो नहीं करते, किन्तु उनकी श्रद्धा कर्म के अस्तित्व के विषय में डांवाडोल हो जाती है। इसका एक कारण यह भी होता है कि ऐसे व्यक्ति कई बार ऐसी आकस्मिक दुर्घटनाओं, संकटों और विपदाओं से घिर जाते हैं कि उनसे जूझते जूझते वे थक जाते हैं। जब उन्हें इस जन्म में प्राप्त संकटों एवं दुःखों का कुछ भी कारण समझ में नहीं आता, अपनी स्मृति पर बहुत जोर लगा लेने पर भी उन्हें अपनी ऐसी कोई तात्कालिक भूल, गलती, अपराध या त्रुटि नहीं मालूम होती, तब कर्म और कर्मफल के प्रति उनकी रही-सही श्रद्धा भी विदा होने लगती है। तब वे कर्म के अस्तित्व के प्रति भी अश्रद्धाशील होकर यह सोचने लगते हैं कि धर्म-कर्म कुछ नहीं है। अगर कर्म होता तो इतने आकस्मिक संकटों की वृष्टि मुझ पर क्यों होती ? अमुक व्यक्ति ने ही मुझे हानि पहुँचाई होगी या अमुक देवी, देव या शक्ति ने मुझे पर कोप किया होगा ! इस प्रकार वह निमित्तों या देवी - देवों को कोसने लगता है। अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों- सुकर्मों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। कर्म के प्रति आस्थाहीन : अर्थलिप्सु लोगों के चक्कर में ऐसे समय में देवी- देवों, ग्रह-नक्षत्रों या भूत-प्रेतों के अर्थलिप्सु स्वार्थी एजेंट अपनी दूकान लगाकर बैठे मिलते हैं। संकटग्रस्त व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उन निपट स्वार्थी एजेंटों के पास जाकर आकस्मिक संकटों का कारण पूछते हैं तो वे तपाक से भूत-प्रेतों, अमुक देवी- देवों या अमुक ग्रह-नक्षत्रों का प्रकोप बतला कर पूजा-पाठ, ग्रहशान्ति अथवा भूत-प्रेतों के वशीकरण के बहाने उनसे पर्याप्त धन और साधन ऐंठ लेते हैं। अथवा कोई मंत्र-तंत्रवादी लोग उसके मन-मस्तिष्क में ऐसा बहम घुसा देते हैं कि किसी ने उस पर तांत्रिक प्रयोग या मारण, मोहन, उच्चाटन या वशीकरण मंत्र का प्रयोग कर दिया है। कर्म के प्रति पहले से संदिग्ध संकटग्रस्त व्यक्ति झटपट ऐसे लोगों के चक्कर में आ जाते हैं। वह ऐसा नहीं सोच पाता कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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