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________________ १८४ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) और फेथफुल मानने लगा है। इसी कोटि के अधिकांश लोग अपने दुष्कृत्यों पर पर्दा डालने के लिये मन्दिर, मस्जिद, गिर्जाघर, स्थानक, रामद्वारा, उपाश्रय, संगत, गुरुद्वारा आदि धर्मस्थानों में जाकर परमात्मा, भगवान्, गॉड, खुदा या प्रभु की थोड़ी-सी स्तुति, भक्ति, पूजा-पत्री, क्रियाकाण्ड आदि या धर्मक्रिया, स्तोत्रपाठ आदि करके स्वयं को परमात्मा के भक्त, आस्तिक, श्रद्धालु एवं धर्मात्मा मानने लगते हैं। ' देव आदि द्वारा मानव का भाग्य बदलने की अन्धश्रद्धा आज एक प्रकार की अन्धश्रद्धा अधिकांश लोगों के दिमाग में घुस गई है कि अमुक देव या भगवान् अपनी मर्जी और मौज के मुताबिक किसी के भाग्य को बुरा और किसी के भाग्य को अच्छा लिखते या बनाते रहते हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता नहीं है, वह अज्ञ है, असमर्थ है, भला उसके किये से क्या होगा ? इस प्रकार स्वयंकृत शुभकर्मों (सत्कृत्यों) द्वारा अपने भाग्य का निर्माण करने या उसे बदलने का तथ्य भुलाकर मनुष्य कर्म एवं कर्मफल के प्रति संदेहशील, द्विविधाग्रस्त, बन जाता है। परन्तु जैन दार्शनिकों ने इस तथ्य को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त करके कर्म के अस्तित्व के प्रति संशय, दुविधा, भ्रान्ति, अन्धविश्वास आदि की आंधी को उड़ा दिया है। "इस आत्मा ने पहले (इससे पूर्व या पूर्वजन्म में) जो शुभाशुभ कर्म स्वयं किया है, उसका शुभाशुभ फल वह स्वयं ही पाता है। यदि कोई दूसरा (देव, देवी या भगवान् आदि) किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं न किये हुए कर्म का फल दे देता है तो ऐसी स्थिति में स्वकृत कर्म निरर्थक ही ठहरेगा ! "२ यों देवी- देव या भगवान् आदि कोई भी शक्ति अगर अपनी इच्छानुसार किसी को कर्म फल देने लगे तो इन्हें शक्तिसम्पन्न पागलों के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? भला, पूजा-पत्री और मिथ्या या अतिरंजित प्रशंसा तथा अत्यन्त सस्ती उपहार सामग्री पाकर कोई भी शक्ति या देवी-देव, भगवान् अपनी नैतिकता- प्रामाणिकता को ताक में रख देने वाले होते तो आधुनिक अस्त-व्यस्त रिश्वतखोर या खुशामद से बहकने १. जैसा कि तुलसीदासजी ने रामायण में कहा है "वंचक भक्त कहाय राम के, किंकर कंचन कोह काम के ।" जे जन्मे कलिकाल कराला, वायस के गुण, वेष मराला ॥" २. जैसा कि सामायिक पाठ में कहा गया है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ।। - श्लोक ३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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