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कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ?
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इस पर से यह प्रश्न उठता है कि ब्रह्मा या ईश्वर के मन में इस क्रम से सृष्टि-रचना का विचार क्यों आया ? उसने जिस क्रम से आदि में पशु, पक्षी, मत्स्य, सरीसृप और मनुष्य की उत्पत्ति की थी, आज भी उसी क्रम से वह उनकी उत्पत्ति क्यों नहीं करता ? क्यों नहीं वह वन्ध्या या पतिविहीना (विधवा या त्यक्ता) स्त्रियों को कम से कम एक पुत्र दे देता, जिससे वे अपने वन्ध्यापन या पति के अभाव के दुःख को भूल जाएं ? वे मनुष्य जो कष्ट से जर्जर (पीडित) हो रहे हैं या जो धनाभाव के कारण पशुओं का सा जीवन बिता रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं ऐसे साधन जुटा देता है, जिनका आलम्बन पाकर वे अपने कष्ट को कुछ कम करने में समर्थ हों ? उनके पाप ईश्वर को ऐसा नहीं करने देते, इस कथन में कुछ भी सार नहीं है, क्योंकि पुण्य के समान पाप का निर्माण भी तो उसने किया है। उसने पाप का निर्माण ही क्यों किया ?'
युक्ति, तर्क, प्रमाण और अनुभव के आधार पर विचार करने से सच्चे माने में यही ज्ञात होता है कि इस प्रकार विश्व की उत्पत्ति या रचना मानना भावुक कल्पना है। जो दर्शन ईश्वरकर्तृत्ववादी माने जाते हैं, उनसे भी इस कल्पना का समर्थन नहीं होता। ईश्वर-कर्तृत्ववाद के समर्थक दो मुख्य दर्शन हैं-एक न्यायदर्शन और दूसरा वैशेषिक दर्शन। परन्तु ये दोनों दर्शन पूर्वोक्त सृष्टिक्रम को स्वीकार नहीं करते।
तटस्थतया युक्तिपूर्वक विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की यह रचना अनादि है और स्वतः रचित है। उसमें जो यत्किंचित् परिवर्तन समय-समय पर दिखाई देता है, उसमें किसी की इच्छा कारण न होकर परस्पर-सम्बद्ध घटनाक्रम ही उसके लिए उत्तरदायी है। सूर्य नियत समय पर उदित होता है और नियत समय पर अस्त होता है। इसमें किसी भी अज्ञात शक्ति का हाथ नहीं है। जगत् का यह क्रम अनादिकाल से इसी प्रकार चलता आ रहा है, और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। जिन विचारकों का जगत् के इस स्वाभाविक क्रम की ओर ध्यान गया है, उन्होंने जगत् की यथार्थ स्थिति का विश्लेषण करके विश्व में स्थित अनेक पदार्थों के संयोग और स्वभाव को ही इसका कारण माना है। इसी प्रकार जीव और कर्म का ऐसा स्वभाव है, जिससे वे अनादिकाल से सम्बद्ध हो रहे हैं और जब तक उन्हें परस्पर बन्ध के कारणों (मिथ्यात्वादि) का संयोग मिलता रहेगा, तब तक वे बन्ध को प्राप्त होते रहेंगे।
१. महाबंधो भाग-२ की प्रस्तावना से पृ. १५-१६ २. महाबन्धो भाग-२ की प्रस्तावना पृ. १६ (सारांश)
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