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________________ १७० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) है, न मरती (नष्ट होती) है, अर्थात्-न तो यह कभी (उपन्न) हुई है, न होगी, और न होती है। यह नित्य, अजन्मा, पुराण और शाश्वत है। शरीर के हनन किये जाने पर भी आत्मा का हनन नहीं होता।' कर्म और आत्मा में पहले कौन ? पीछे कौन ? जब आत्मा अनादि है तो कर्म भी अनादि होना चाहिए, क्योंकि कर्म करने वाला तो आत्मा ही है। ऐसी स्थिति में यह ज्वलन्त प्रश्न कर्ममर्मज्ञों के समक्ष उपस्थित किया गया कि कर्म और आत्मा; इन दोनों में पहले कौन है, बाद में कौन है ? कर्म पहले है अथवा आत्मा ? कर्म आत्मा के साथ कब से लगे ? वे पहले लगे या पीछे लगे ? जैन कर्मविज्ञान के महामनीषी तीर्थकरों एवं तलस्पर्शी अध्येता आचार्यों ने इस प्रश्न पर युक्तिपूर्ण एवं अनुभवपूर्ण समाधान किया है कि कर्म और आत्मा, इन दोनों में पहले कौन, पीछे कौन ? यह प्रश्न ही नहीं उठता। पंचाध्यायी आदि ग्रन्थों में स्पष्ट कहा है "जैसे आत्मा अनादि है, वैसे पुद्गल (कम) भी अनादि है। आत्मा और कर्म दोनों का सम्बन्ध भी अनादि है। आत्मा कार्मणात्मक कर्मों के साथ अनादि काल से बद्ध होकर चला आ रहा है।"२ कर्म पहले या आत्मा ?, इसका युक्तिसंगत समाधान जैन संस्कृति के उन्नायक तीर्थंकरों तथा कर्ममर्मज्ञ आचार्यों ने कर्म पहले है या आत्मा पहले ? आत्मा से साथ कर्म कब से लगे ? इत्यादि प्रश्नों का युक्तिसंगत समाधान मुर्गी और अण्डे के, अथवा बीज और वृक्ष के न्याय से किया है। उन्होंने कहा कि मुर्गी और अण्डा, इन दोनों में पहले कौन, पीछे कौन ? यदि अण्डे को पहले मानते हैं तो प्रश्न होता है-'मुर्गी के बिना अण्डा कहाँ से उत्पन्न हुआ या आया ?' यदि मुर्गी को पहले मानते १. (क) न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। - भगवद्गीता २/२० (ख) कालओ णं कयाई णासी, ण कयाइ न भवइ, ण कयाई न भविस्सइत्ति, भूविय भवइ य भविस्सइ य, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए णिच्चे । -ठाणांग ५/३/५३० २. (क) यथाऽनादिः स जीवात्मा, तथाऽनादिश्च पुद्गलः । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात्, सम्बन्धो जीव-कर्मणोः॥ -पंचाध्यायी २/३५ (ख) अस्त्यात्माऽनादितो बद्धः कर्मभिः कार्मणात्मकैः । - लोकप्रकाश, ४२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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