________________
१६४ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
फल भी नहीं कह सकते, क्योंकि माता-पिता जो भी अच्छे या बुरे आचरण या कार्य करते हैं, उनका फल अकारण ही बालक को क्यों भोगना पड़े ? तथा बालक भी गर्भावस्था में जो भी दुःख भोगता है, उसे भी अकारण मानना बिल्कुल उचित नहीं है, क्योंकि कारण के बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता, यह न्यायशास्त्र का सिद्धान्त है । यदि यह कहा जाए कि गर्भावस्था में ही माता-पिता के आहार-विहार, आचार-विचार और संस्कार-विकार तथा शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ने लगता है और उन्हीं के कारण उसे दुःख भोगने पड़ते हैं; ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि गर्भस्थ शिशु को ऐसे माता-पिता मिले ही क्यों ? अन्ततोगत्वा, इस प्रश्न का समाधान यही होगा कि गर्भस्थ शिशु के. जैसे पूर्वजन्मकृत कर्म थे, तदनुसार उसे वैसे माता-पिता, सुख-दुःखं या अनुकूल-प्रतिकूल संयोग मिले । '
इस युक्ति से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।
‘तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने हेतु यह तर्क प्रस्तुत किया गया है कि सिंह, भेड़िया, चीता, व्याघ्र, सांप, मनुष्य आदि में शूरता क्रूरता आदि धर्म (स्वभाव) होते हैं, वे परोपदेशपूर्वक न होकर सहज (नैसर्गिक) होते हैं। तथा ये गुणधर्म आकस्मिक या अकारण भी नहीं होते। इनका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए, वह कारण पूर्वकृत कर्म ही हैं, कर्मोदय के निमित्त से ये उन उन जीवों में उत्पन्न होते हैं। '
'प्रवचनसार (तत्त्व प्रदीपिका)' में बताया गया है कि जिस प्रकार ज्योति तेल के स्वभाव को निजस्वभाव से नष्ट करके प्रदीप्त होने का कार्य करती है, उसी प्रकार कर्म जीव के स्व-भाव (आत्म-भाव) का विघात करके उसके मनुष्य, पशु, पक्षी आदि पर्याय रूप कार्यों का जनक (कारण) बनता है । अर्थात् - कर्म जीव की विभिन्न पर्यायों (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अवस्थाओं) का उसी प्रकार कारण है, जिस प्रकार दीपक का तेल ज्योति का कारण है। जीव की मनुष्य, पशु, पक्षी आदि कार्यरूप नाना पर्याएँ (अवस्थाएँ) अकारण नहीं होतीं। उनका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए, वह कारण कर्म ही है। इस प्रकार आत्मा के स्वभाव का घात करके
१ कर्ममीमांसा पृ. १२
२
(क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/३/६
(ख) जैन दर्शन में आत्मविचार पृ. १९०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org