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________________ १५६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व.(१) वे नष्ट हो जाते हैं, जबकि अंकुर निकाल कर दूसरे स्थान पर लगाने से वह नया पेड़ बन जाता है। पिछले ५ वर्षों में उक्त नारियल के पेड़ द्वारा १०० पौधों को जन्म देने के उपरान्त अब भी नये पौधों को जन्म देने का क्रम जारी है। आमतौर पर आम का पेड़ १५-२० फुट ऊँचा बढ़ने के बाद ही बौराता और फल देता है। लेकिन जबलपुर में किसी व्यक्ति ने कुछ महीने पूर्व आम का एक पौधा लगाया, वह दो फुट ऊँचा बढ़कर ही आम्रफल देने लगा। कुछ महीनों की आयु वाले इस पौधे में ८0 आम लगे। कोई भी यह नहीं समझ सका कि इतनी कम आयु के, इतने छोटे-से आम के पौधे में कैसे इतने फल-फूल लग गये। इस आम के पौधे को देखने के लिए दूर-दूर से हजारों लोग आने लगे। पेड़-पौधे और वनस्पतियों में पाई जाने वाली इन विलक्षणताओं का रहस्योद्घाटन 'जीन्स', आनुवंशिकता या विकासवाद के आधार पर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सब तो मानवीय विलक्षणताओं की और वह भी इस जन्म (जीवन) की ही व्याख्या करते हैं, जबकि कर्मविज्ञान ने लाखों करोड़ों वर्ष पहले की, प्रत्येक प्राणी की नित्य आत्मा के साथ पूर्वजन्मकृत कर्म परमाणुओं का अगले जन्म या जन्मों में अविच्छिन्नरूप से अनुगमन के सिद्धान्त से इन विलक्षणताओं का रहस्योद्घाटन कर दिया है। इन सब मनुष्येतर प्राणियों तथा पेड़-पौधों आदि के स्वभाव, गुणधर्म एवं परम्परागत-संस्कारों में विलक्षण परिवर्तन न तो आनुवंशिक है, न ही 'जीन्स' का चमत्कार है और न ही प्रोटोप्लाज्म (परिवेश या वातावरण) का आंशिक अवतरण है, क्योंकि मनोविज्ञान या जैवविज्ञान केवल मानवीय विलक्षणताओं की व्याख्या 'जीवन' (कवल इहलौकिक जन्म) के आधार पर करता है, जबकि कर्मविज्ञान मानवीय ही नहीं, मानवेतर सभी प्राणियों तथा पेड़-पौधों आदि में पाई जाने वाली विलक्षणताओं की व्याख्या 'जीव' के आधार पर करता है। यही कारण है कि ये सब प्राणी तथा पेड़-पौधे आदि भी जन्म-जन्मान्तर में अर्जित कर्मजन्य संस्कार लेकर इस जन्म में पशुयोनि में होते हुए भी मानवगत विलक्षणता के धनी होते हैं तथा पेड़-पौधे भी पूर्वजन्मकृत पुण्यकर्म के फलस्वरूप विशेषता को लिये हुए १ अखण्डज्योति सितम्बर १९७९ के अंक में प्रकाशित लेख से सार संक्षेप पृ. २७ २ वही, सितम्बर १९७९ के अंक से पृ. २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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