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________________ १५२ . कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) हैं। वे सम्बद्ध व्यक्ति के स्वतः पूर्वजन्मार्जित कर्मजन्य संस्कारों का ही परिणाम मानी जा सकती हैं। पूर्वजन्मार्जित कर्म ही जन्मजात विलक्षणता के मूल कारण - अब तो परामनोवैज्ञानिकों के प्रयत्न से किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में ऐसी जन्मजात विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। बड़े-बड़े विचारक भी उन विलक्षणताओं का कारण स्पष्टतः नहीं जान सके। पूर्वजन्म के सिद्धान्त को मानने से यह गुत्थी सहज ही सुलझ जाती है। अन्ततोगत्वा यह मानना पड़ता है कि इस जन्मजात विलक्षणता के मूल कारण उस जीव द्वारा पूर्वजन्मों में संचित या अर्जित कर्म ही हैं। मानवीय गुणों में विकास की जन्मजात विभिन्नता पैतृक नहीं विकासवाद के समर्थकों ने मानवीय गुण एवं प्रवृत्तियों के आधार तक की ही व्याख्या की है, और वह भी इस जन्म को लेकर ही। मानवेतर प्राणियों की विलक्षणताओं और विशेषताओं के आधार का कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया। उन्होंने मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों का आधार पैतृक माना है। विकासवाद के मूल आविष्कारक डार्विन ने मानवीय विशेषताओं की विवेचना पैतृक गुणों के आधार पर करने का प्रयत्न किया है। अर्थात् बच्चा अपने माता-पिता से अपनी मूल विशेषताओं के अनुरूप कुछ विशिष्ट गुणों को प्राप्त करता है। किन्तु यह तथ्य एक सीमा तक ही सही है। सम्पूर्ण विशेषताओं का आधार पैतृक मानना सही नहीं है। अनेक बच्चों में जन्मजात ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जो उनके माता-पिता में नहीं थीं। वैज्ञानिक इन विशेषताओं के कारणों की खोज पिता-पितामह से लेकर अनेक पीढ़ियों तक की करते हैं; किन्तु खोज करने पर भी इन पीढ़ियों में कोई ऐसी विशेषता नहीं मिलती, जो उस बालक में थी। अतः इस प्रकार के विश्लेषण से निराशा ही उनके हाथ लगती है। वस्तुतः बच्चों में वे गुण मौलिक होते हैं, जिन्हें वे जन्म-जन्मान्तर के अपने कर्मजन्य संस्कारों के रूप में साथ लाते हैं। पैतृक गुणों के आधार पर व्याख्या करने से वैज्ञानिकों को प्रायः असफलता ही मिलती है। उन्हें वास्तविकता मालूम हो जाती है कि उस बच्चे की पैतृक-पीढ़ियों में कोई भी इन गुणों से युक्त नहीं था। तथ्य यह है कि प्रत्येक जीव अपने-अपने पूर्वकृत कर्मानुसार अपनी मौलिक क्षमता, विशेषता और विलक्षणता लेकर यहाँ आता है।' १ अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७९ में प्रकाशित लेख के आधार पर सार-संक्षेप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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