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________________ १२६ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) हैं, जिनका सीमित नियंत्रण है और थोड़े से ऐसे महाव्रती हैं, जिनके वश में उनकी इन्द्रियाँ हैं। सावद्य (पापमय) प्रवृत्ति पर पापजनक हिंसादि प्रवृत्तियों पर नियंत्रण को भी संयम कहते हैं। इस प्रकार का सराग-संयम भी कुछ थोड़े-से साधु-साध्वियों में होता है, जो पंचमहाव्रतरूप संयम में प्रवृत्त होते. हैं, और समस्त सावद्य व्यापारों से निवृत्त होते हैं । कई गृहस्थ संयमासंयमी हैं, जो अणुव्रतों का पालन करते हैं। वे आंशिक रूप से संयम में प्रवृत्ति करते. हैं। इसके सिवाय अनन्त जीव असंयम में पड़े हैं । उनमें भी बहुत तारतम्य है। यह सब संयम-असंयम को लेकर जो तारतम्य है, उसका मूल कारण शुभाशुभ कर्म का उदय, क्षय या क्षयोपशम ही है। (१०) दर्शन - पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके; केवल सामान्य अंश का निर्विकल्प रूप से ग्रहण (ज्ञान) करना दर्शन' कहलाता है। दर्शनः को लेकर जीवों में अनेक प्रकार के भेद हैं। चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के चक्षुदर्शन होता है । वह एकेन्द्रिय से त्रीन्द्रिय तक के जीवों के नहीं होता । इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रिय से दर्शन भी क्रमशः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों को होता है । श्रोत्रेन्द्रिय से दर्शन सिर्फ पंचेन्द्रिय जीवों को होता है । और अवधिदर्शन तो नारकों और देवों को तो जन्म से होता है । शेष पंचेन्द्रिय जीवों में से किसी विरले ही मनुष्य या तिर्यंच को होता है । और केवलदर्शन तो वीतराग केवली को ही होता है । दर्शन को लेकर जीवों में इतनी विभिन्नता और विसदृशता का कारण भी कर्म के उदय, क्षय या क्षयोपशम को ही समझना चाहिए । (११) लेश्या' - लेश्या से आत्मा कर्मों से श्लिष्ट - लिप्त होती है कषायोदय से अनुरंजित होने पर आत्मा (जीव) के जैसे-जैसे परिणाम होते हैं, वैसी-वैसी लेश्या उसकी होती जाती है । इस दृष्टि से कृष्ण, नील, कापोत आद तीन लेश्याएँ पहले से लेकर छठे गुणस्थान वाले जीवों तक में पाई जाती हैं । तेजोलेश्या और पद्मलेश्या आदि के सात गुणस्थानों में होती हैं, और शुक्ललेश्या में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के जीव होते हैं । इसके अतिरिक्त किसी में कृष्ण, किसी में नील, किसी में कापोत १ दर्शनं सामान्यावबोध लक्षणम् । - षड्दर्शनसमुच्चय २/१८ २ (क) कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिः लेश्या । (ख) लिप्पइ अप्पा कीरइ एयाए पुण्ण- पाव च ...... जीवोत्ति होइ लेस्सा, लेस्सागुण जाणमक्खया ॥ — पंचसंग्रह १४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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