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१२४ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
सांसारिक जीवों में कोई स्त्री वेदी है, कोई पुरुष - वेदी है और कोई नपुंसक - वेदी है। एकेन्द्रिय जीव नपुंसक - वेदी माने जाते हैं। शेष जीवों में
ही प्रकार के वेद पाये जाते हैं। किसी में किसी वेद की अधिकता है, किसी में न्यूनता । इस प्रकार सांसारिक जीवों की कामवासना (इन्द्रियरमण करने की अभिलाषा) में भी बहुत तरतमता है। किसी की कामवासना अन्यन्त मन्द, किसी की तीव्र और तीव्रतर भी होती है । इन सब तरतमताओं का कारण कर्म के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? मनोवैज्ञानिक इसका चाहे कोई भी शारीरिक या मानसिक कारण बताएँ, अन्य दार्शनिक इसे चाहे आनुवंशिक या पूर्वजन्मीय संस्कारों को कारण मानें; मगर उन सब कारणों का मूल कारण कर्म को मानने पर ही पूर्ण मनःसमाधान होता है।
कषाय को लेकर जीवों में तारतम्य का कारण : कर्म
(६) कषाय- इसके पश्चात जीवों के क्रोध - मान-माया-लोभरूप चार कषायों की मात्रा में जो अन्तर पाया जाता है, वह भी अकारण नहीं है । किसी में क्रोध तीव्र होता है, किसी में लोभ, किसी में अहंकार (मान) तीव्र होता है, किसी में माया (छल-कपट ) तीव्र होती है । किसी में ये चारों, अथवा इनमें से कोई एक, दो या तीन मन्द होते हैं, किसी में चारों ही कषाय अत्यन्त मन्द होते हैं। इस प्रकार जीवों में कषायों की मन्दता, तीव्रता की मात्रा में न्यूनाधिकता पाई जाती है, उसका मूल कारण 'कर्म' को ही माने बिना कोई चारा नहीं ।"
कर्म ही जीवों के ज्ञान, संज्ञा, संज्ञित्व - असंज्ञित्वादि में अन्तर का मूल कारण
(७) ज्ञान - जीवों के ज्ञान में भी पर्याप्त अन्तर है । एक को परिपूर्ण केवलज्ञान है, किसी को अवधिज्ञान तक तीन ज्ञान हैं, किसी को मनःपर्यायज्ञान तक चार ज्ञान हैं और किसी को सिर्फ मति, श्रुत ये दो ही ज्ञान हैं । अथवा अनन्त जीवों में सम्यग्ज्ञान ही नहीं, दो कुज्ञान, अथवा तीन कुज्ञान ही हैं । नारकीय जीवों में सम्यग्दृष्टि के सिवाय सभी को
१ (क) जातिनामकर्म के अविनाभावी त्रस अथवा स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को 'काय' कहते हैं ।
- कर्मग्रन्थ तृतीय विवेचन ( मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म.), पृ. ५ - धवला १/१/१/४
(ख) आत्म प्रवृत्तेर्मैथुन - सम्मोहोत्यादो वेदः ।
(ग) "कषत्यात्मानं हिनस्तीति कषाय इत्युच्यते ।"
- राजवार्तिक ६/७
"चारित्र परिणामकषणात् कषायः । " (घ) इन सबके लक्षणों के लिए देखिये- कर्मग्रन्थ भा. ३ विवेचन ( मरुधर
केसरी मिश्रीमल जी म.), पृ. ५
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