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________________ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) शरीरनामकर्म के उदय से मन-वचन काया से युक्त जीव की कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति को भी योग कहते हैं। " समस्त प्रकार के सांसारिक जीवों के मन, वचन और काया के योगों (मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों - व्यापारों) को लेकर भी विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । समस्त जीवों के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति करने की शक्ति, अशक्ति, उनकी चेतना के विकास - ह्रास की स्थिति, उनके त्रिविध योगों के प्रयोग की क्षमता - अक्षमता, तथा पंचेन्द्रिय, मन आदि त्रिविध बल, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु, इन दशविध प्राणों की बलवत्ता अबलवत्ता' तथा इनकी योग्यता - अयोग्यता में जो तारतम्य दिखाई देता है, उसे भी कर्मजन्य माने-बिना कोई चारा नहीं है। १२२ (क) मनोयोग - की अपेक्षा से कोई प्राणी मननशील है, मनस्वी है, विचारशील है तो कोई मनन- चिन्तन ही नहीं कर पाता, न ही मनस्वी और विचारक है। कोई विवेकी और तार्किक है, तो कोई विचारमूढ़ है, अविवेकी है। कोई भावुक है, सहृदय है, उदारभावों से युक्त हैं, तो कोई निष्ठुर, हृदयहीन और पाषाणवत् कठोर हृदय है, कृपण और अनुदार है । कोई मंदबुद्धि और मूर्ख है तो कोई प्रखरबुद्धि, प्राज्ञ विद्वान् एवं सुशिक्षित है। कोई संस्कारहीन और अनघड़ है, फूहड़ है तो कोई सुसंस्कारी, प्रतिभासम्पन्न और चतुर है। मन की प्रवृत्ति (योग) के ये असंख्य प्रकार कर्म के कारण ही सम्भव हैं। - (ख) वचनयोग- वाणी-प्रयोग को लेकर जीवों के असंख्य प्रकार हैंपृथ्वीकाय आदि पांच प्रकार के स्थावरकाय जीवों को तो वाणी ही प्राप्त नहीं है। वे बिलकुल भाषा - पर्याप्ति से रहित हैं । द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों को भाषा के लिए जिह्वा (रसना) तो मिली है, परन्तु उनकी चेतना बहुत ही अविकसित है, इसलिए वे जिह्वा से पदार्थ का स्वाद चखने के सिवाय अन्य उपयोग नहीं कर सकते । वे मूक ही रहते हैं । अब रहे चतुरिन्द्रिय प्राणी, वे भाषा का प्रयोग तो करते हैं, किन्तु उनकी भाषा अव्यक्त है । न वे किसी की बोली को सुन पाते हैं और न ही उसका उत्तर दे पाते हैं । सभी पंचेन्द्रिय जीवों को भाषा (वाणी) तो प्राप्त हुई है, किन्तु तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों की भाषा अव्यक्त है, स्पष्ट नहीं है, व्यवस्थित नहीं १ (क) मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरिय- परिणामो । जिहप्पणिजोगो जोगो त्ति, जिणेहिं णिद्दिट्ठो ॥ -पंचसंग्रह ८८ कर्मग्रन्थ विवेचन भा. ३ ( मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म. प. ५ (ख) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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