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________________ कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य ११९ परन्तु दूसरी डली में खोट मिली हुई है । इसलिए इन दोनों के मोल-भाव में कमी-वेशी होना स्वाभाविक है । मूल्य में इतना भेद मैं या सोना नहीं डाल रहे हैं, सोने की एक डली में जो खोट मिली हुई है, वही विजातीय तत्त्व यह भेद डाल रहा है । इसी प्रकार संसारी आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि विकारों की खोट मिली हुई है, इन विजातीय तत्त्वों का जो संयोग है, वही शुद्ध और संसारी आत्मा में भेद डाल रहा है । यह विभिन्नता या विचित्रता बाहर से ही आती है, अन्दर से नहीं। अंदर में तो प्रत्येक आत्मा में चैतन्य का शुद्ध प्रकाश देदीप्यमान है। आत्माओं में यह अशुद्धि सकारण है, अकारण नहीं ___आत्माओं में यह अशुद्धि (खोट) सकारण अर्थात् सहेतुक मानी जाती है । यदि उस बाहर से आई हुई अशुद्धि को अहेतुक या अकारण मानी जाएगी, तब तो आत्मा में स्थायी रूप से सदा-सर्वदा कायम रहेगी, कभी मिट ही नहीं सकेगी, ऐसी स्थिति में आत्मा में सुषुप्त अनन्तज्ञानादि के असीम प्रकाश को कदापि अनावृत नहीं किया जा सकेगा, न ही आत्मा में विराजमान परमात्म-तत्त्व को जगाया जा सकेगा । फिर सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय द्वारा आत्मा को परम विशुद्ध बनाने तथा मोक्ष की साधना भी निरर्थक दुष्पुरुषार्थ सिद्ध होगी। अतः जल में बाहर से आई हुई उष्णता के समान आत्मा में भी बाहर से आई हुई अशुद्धि सहेतुक-सकारणक माननी चाहिए, अकारणक नहीं । आत्मा पर आई हुई उस अशुद्धि को सकारणक मानने पर उस (जीव) के द्वारा रत्नत्रयसाधना में किया हुआ पुरुषार्थ सार्थक होता है, एक दिन वह आत्मा शुद्ध-बुद्ध मुक्त हो सकती है। उसमें सुषुप्त अनन्त ज्ञानादि का प्रकाश पुनः जागृत होकर जगमगा सकता है ।२। ___ प्रश्न होता है-इस दृश्यमान विश्व में दो ही पदार्थ मुख्य हैं-जड़ (अजीव) और चेतन (अजीव आत्मा)। दोनों का अपना-अपना पृथक् अस्तित्व है, दोनों का स्वभाव, स्व-रूप और गुणधर्म अलग-अलग है । जीव और अजीव दोनों अपने मूलरूप में शुद्ध हैं। तब फिर संसारी आत्माओं में जो अशुद्धि, विकृति या विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, उसका क्या कारण है, कौन-सा हेतु है ? जैन मनीषियों ने इसका कारण बताया हैविजातीय पदार्थों का संयोग। अशुद्धि सजातीय पदार्थों के संयोग से नहीं आती सजातीय पदार्थों के संयोग से अशुद्धि या विकृति नहीं आती, अशुद्धि १ कर्ममीमांसा पृ. ६-७ २ कर्ममीमांसा, पृ. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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