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________________ ७८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) प्रवाह आरोह-अवरोह के विभिन्न क्रमसंघातों के साथ निरन्तर गतिशील रहता है। साथ ही, मृत्यु के बाद के जीवन के अनुभूतिक्रम का वर्तमान अनुभूतियों के साथ एक प्रकार का सातत्य रहता है।' पूर्वजन्म-पुनर्जन्म-सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप और उनका परिहार पूर्वोक्त दोनों पुनर्जन्मविरोधी वर्गों के द्वारा इस सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप किये गए हैं, जिनका निराकरण भारतीय दार्शनिकों, पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों एवं परामनोवैज्ञानिकों द्वारा अकाट्य तर्को, युक्तियों तथा : प्रत्यक्ष अनुभूतियों के आधार पर दिया गया है। (१) प्रथम आक्षेप : विस्मृति क्यों ? -पुनर्जन्म के विरुद्ध कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि "यदि जीवन का अस्तित्व भूतकाल में था तो उस समय की स्मृति वर्तमान में क्यों नहीं रहती ?" इस सम्बन्ध में विचारणीय यह है कि घटनाओं की विस्मृति-मात्र से पुनर्जन्म का खण्डन नहीं हो जाता। इस . जन्म की प्रतिदिन की घटनाओं को भी हम कहाँ याद रख पाते हैं ? प्रतिदिन की भी अधिकांश घटनाएं विस्मृत हो जाती हैं। सिर्फ स्मरण न होना ही घटना को अप्रमाणित नहीं कर देता। स्मृति तो अपने जन्म की भी नहीं रहती। इस आधार पर यदि कहा जाए कि जन्म की घटना असत्य है, तो इसे अविवेकपूर्ण ही कहा जाएगा। इसका समाधान 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में भी इस प्रकार दिया गया है कि पूर्वजन्म की स्मृति का कारण पूर्वकृत कर्म होते हैं। सभी जीवों के कर्म एक-से नहीं होते। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय-क्षयोपशम में भी तारतम्य होता है। इसलिए सभी जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति एक-सरीखी नहीं होती, और किसी-किसी को होती भी नहीं है।' ___कुछ आक्षेपक इस प्रकार का आक्षेप भी करते हैं-"यदि पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य है तो पूर्वजन्म की अनुभूतियों की स्मृति सबको उसी प्रकार होनी चाहिए, जिस प्रकार बाल्यावस्था और युवावस्था की स्मृति वृद्धावस्था में होती है।" इस आक्षेप का परिहार 'हीरेन्द्रनाथदत्त' ने इस प्रकार किया है कि स्मरण शक्ति का सम्बन्ध प्राणी के मस्तिष्क से होता है। वह (पूर्वजन्मगत मस्तिष्क) नष्ट हो चुका होता है। इसलिए सबको एक-सी स्मृति नहीं होती। १. अखण्डज्योति, अप्रैल १९७९ के लेख से सार संक्षेप, पृ. १६ २. अखण्डज्योति के सितम्बर १९७९ के 'गतिशील जीवन प्रवाह' लेख से, पृ. १८ ३. शास्त्रवार्ता समुच्चय (आचार्य हरिभद्रसूरि) १/४0 ४. कर्मवाद और जन्मान्तर (हीरेन्द्रनाथदत्त) पृ. ३१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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