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का ही होता है, परद्रव्य का नहीं । जबकि साधु-साध्वीजी भगवंत सर्व द्रव्य त्यागी होते हैं । यदि वे उन वस्तुओं को वहोरकर अपने आधिपत्य क्षेत्र में लाते है तो उनका श्रमण धर्मदुषित होता है । अत: व्रत खण्डन
का दोष लगने से सर्व विरतिधर को आमिष पूजा करना उचित नहीं हैं। प्र.299 सामायिक भाव स्तव है और पूजा द्रव्य स्तव है, भाव स्तव की
महत्ता द्रव्य पूजा की अपेक्षा अधिक होने के बावजूद भी सामायिक की अपेक्षा पूजा को अधिक महत्ता क्यों दी गई ? - भावस्तव रुप सामायिक महत्वपूर्ण हैं परन्तु स्वाधीन अर्थात् स्वतन्त्र, स्व इच्छित संचालित होने से वह किसी अन्य समय पर भी कर सकते है, जबकि चैत्यपूजादि कार्य सामुदायिक होने से निश्चित्त समय पर सहयोग
भाव से करना उचित है । इस अपेक्षा से पूजा करने का कथन किया है। प्र.300 सामायिक, भगवान का ध्यान, स्तोत्र पाठ, स्वाध्याय आदि निर्दोष
उपाय में लगने से कृषि आदि बड़े दोष वाली क्रिया से निवृत्ति हो सकती है ना ? फिर जिनपूजा (द्रव्य स्तव) को ही क्यों महत्व दिया हैं? __ मूल बड़े दोष-ममता, तृष्णा और अहंत्व के है। गृहस्थ के सामायिकादि
में ममता, तृष्णादि का इतना कटना मुश्किल है क्योंकि वहाँ कोई द्रव्य व्यय नही होता है, जबकि जिन पूजा-सत्कार में द्रव्य व्यय करना होता है इससे तृष्णा, ममता का क्षय होता है, आसक्ति घटती है । अरिहंत परमात्मा का अभिषेकादि पूजा करने से नम्रता, सेवक भाव, समर्पण भाव भी बढता है इससे अहंकार का नाश होता है । इन्द्रिय विषय एवं कृषि
आदि में प्रवृत्ति; ममता, तृष्णा एवं अहंत्व मूलक हिंसादि बड़े दोष से ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
चतुर्थ पूजा त्रिक
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