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स्वकथ्य मूर्तिपूजा अनादिकाल से चली आ रही हैं । मनुष्य का प्रथम और अंतिम लक्ष्य सिद्धत्व की प्राप्ति हैं, और उसकी प्राप्ति में दो तत्त्व उसके सहयोगी हो सकते हैं - जिन प्रतिमा और जिनवाणी । प्रतिमा चाहे काष्ठ की हो या रत्न की, पाषाण की हो या धातु की । उपासक का लक्ष्य इतना ही हैं कि वह उस प्रतिमा में वीतरागता का दर्शन कर अपने भीतर छिपे वीतरागी भावों को अनावृत करे। ___द्रव्यानुयोग के प्रकाण्ड पंडित श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अपने भक्तिगीत में कहते हैं -
"स्वामी दर्शन समो, निमित लही निर्मलो । ___ जो उपादान ए शुचि न थाशे ॥ दोष को वस्तुनो अहवा, उद्यम तणो ।
स्वामी सेवा सही निकट लासे स्वामी गुण ओलखी, स्वामी ने जे भजे ।
__दर्शन शुद्धता तेह पामे ॥" परमात्मा के दर्शन जैसा उत्कृष्ट आलम्बन पाकर भी हमारी आत्मा शुद्ध और पवित्र न बनी तो मानना चाहिए की इसमें कहीं हमारा पुरूषार्थ त्रुटी पूर्ण हैं । चक्रवर्ती सम्राट को पाकर भी अगर कोई सेवक दाने-दाने को तरसता रहे तो उसका दुर्भाग्य ही हैं । परमात्मा को आधार पाकर भी हमारी चेतना अपने स्वभाव को उपलब्ध न कर पायी तो इससे अधिक कमनसीबी क्या होगी? - जिन प्रतिमा साधक के लिए इस कारण भी आवश्यक हैं कि जब भी समाधि अथवा ध्यान की गहराई में जाना चाहे वह उसके लिए सहायक बनती है । एक बार जिन प्रतिमा को अपनी आँखों में बसाकर हम कुछ समय
चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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