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पांच हजार पगथियों के पश्चात् जत्य स्वर्णमय और विविध रत्नमय कंगुरों से युक्त द्वितीय गढ़ की रचना ज्योतिष्क देव करते है । इस गढ़. के भीत की लम्बाई और चौडाई प्रथम गढ़ के समान होती है। प्रथम गढ़ के समान चारों दिशाओं में चार द्वार और प्रत्येक द्वार. पर दो-दो देवियाँ द्वारपालिका होती है। पूर्व द्वार पर जया नाम की दो देवियाँ श्वेत वर्ण और अभय मुद्रा से सुशोभित करकमल वाली द्वारपालिका होती है। दक्षिण द्वार पर मनोहर, लाल वर्ण की विजया नामक दो देवियाँ हाथ में अंकुश लिए खड़ी रहती है। पश्चिम द्वार पर पीतवर्ण की अजिता नामक दो देवियाँ हाथ में पाश पकड़े खड़ी रहती है । उत्तर द्वार पर नील वर्ण वाली अपराजिता नामक दो देवियाँ हाथ में मकर पकड़े खड़ी रहती है। प्रथम गढ़ के समान इस गढ़ में भी 50 धनुष प्रमाण प्रतर होता है । इस गढ़ में तिर्यंच प्राणी - सिंह, बाघ, मगर आदि आपसी वैरभाव भूलकर एक साथ बैठते है। इस गढ़ के ईशान कोण में मनोहर देवच्छंद. होता है, जहाँ तीर्थंकर परमात्मा प्रथम प्रहर की देशना के पश्चात् विराजित होते है । द्वितीय गढ़ के ऊपर पांच हजार पगथियों के पश्चात् वैमानिक देवों द्वारा निर्मित रत्नमय तृतीय गढ़ होता है, जिस पर मणिरजित कंगुरे होते है। इस गढ़ के भीति की लम्बाई, चौड़ाई और चारों द्वार की रचना प्रथम गढ़ के समान होती है । सुवर्ण के समान क्रांतिवाला सोम नामक वैमानिक देव हाथ में धनुष धारण किये पूर्व द्वार पर द्वारपाल तरीके खड़ा रहता है । दक्षिण द्वार पर गौर अंगवाला व्यंतर जाति का यम नामकदेव द्वारपाल रूप हाथ में दंड धारण किये खड़ा रहता है। पश्चिम
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परिशिष्ट
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