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चैत्यवंदन के निमित्त साधु भगवंत मंदिर में जा सकते है । साधु भगवंत को चैत्यवंदन करते समय 'सिद्धाणं - बुद्धाणं' की तीसरी गाथा बोलने तक मंदिर में रुकने की जिनाज्ञा है ।
तिन्नि वा कड्डइ जाव, थुइओ तिसिलोइया ।
ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण उ ॥
सिद्धाणं बुद्धाणं की अंतिम दो गाथाएं तथा चतुर्थ स्तुति का विधान भी गीतार्थ की आचारणा के अनुसार है और गीतार्थ की आचारणा गणधर भगवन्त की आज्ञा की तरह मान्य है । अत: चार स्तुति बोलने तक जिनमंदिर में रुका जा सकता है। धर्म-श्रवण इच्छुक भव्य आत्मा को धर्म देशना देने हेतु मंदिर में रुकना जिनाज्ञा सम्मत है, इसके अलावा अनावश्यक मंदिर में रुकना आशातना का कारण है तथा जिनाज्ञा विरुद्ध होने से साधु व गृहस्थ श्रावक दोनों को अधिक समय ठहरना नहीं कल्पता है । " । " आणाइच्चियं चरणं" आज्ञा में ही चारित्र है । प्र.1315 जघन्य दस आशातनाओं के कथन के पश्चात् अलग से मध्यम
व उत्कृष्ट आशातनाएं क्यों कही गयी ?
जैसे - "ब्राह्मणा समागता वशिष्ठोऽपि समागतः ।" इन दो वाक्यों को कहने की आवश्यकता नही है । क्योंकि वशिष्ठ का आगमन ब्राह्मणों के आगमन के अन्तर्गत ही आ जाता है, किन्तु 'वशिष्ठ' की विशिष्टता सूचित करने के लिए उनको अलग बताया गया । वैसे ही यहाँ भी बालजीवों के बोध हेतु मध्यम व उत्कृष्ट आशातनाएं अलग से कही गयी है
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चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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