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________________ निर्धारित आराधना, साधना, धर्मानुष्ठान, गुण आदि की सर्वथा निर्दोष प्राप्ति होना । विनियोग - सिद्ध पदार्थ का यथायोग्य नियोजन अर्थात् सिद्ध धर्म गुण (आराधना, साधना, धर्मानुष्ठान गुण) का दुसरों में स्थापन करना । प्र.1145 सद्धाए - मेहाए ......आदि के कायोत्सर्ग करने के अधिकारी कौन होते है ? सद्धाए,मेहाए....... आदि पदों का उच्चारण कपट भाव व पौद्गलिक आशंसा से रहित सम्यग् अनुष्ठान करने वाले पुरुष ही कायोत्सर्ग के अधिकारी होते है । उ. प्र. 1146 वड्ढमाणीए से क्या तात्पर्य है ? उ. बढती हुई, किन्तु अवस्थित नही अर्थात् प्रतिसमय समय पूर्वापेक्षा बढना, स्थिर नही होना । प्र. 1147 सद्धाए, मेहाए, धीइए, धारणाए, अणुप्पेहाए इन पाँचों का क्रमशः इस प्रकार से पद उपन्यास क्यों किया ? क्रमिक उपन्यास इनकी उत्पत्ति (प्राप्ति) के क्रमानुसार किया गया है। सर्वप्रथम श्रद्धा उत्पन्न होती है, श्रद्धा से मेधा, मेधा के होने पर ही धृति उत्पन्न होती है, धृति के पश्चात् ही धारणा और अनुप्रेक्षा उत्पन्न होती है । मात्र उत्पति ही नही, इनकी वृद्धि भी इसी क्रम से होती है। अर्थात् श्रद्धा के बढने पर ही मेधा बढती है, मेधा के बढने पर धृति, धृति के बढने पर धारणा और धारणा के बढने पर ही अनप्रेक्षा बढती है । इसलिए यह क्रमिक उपन्यास किया जाता है। प्र.1148 सूत्र के प्रारंभ में 'करेमि काउस्सग्गं और अंत में 'ठामि काउस्सग्गं' चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी उ.. Jain Education International For Personal & Private Use Only 301 www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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