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उपाध्यायों को दसवें प्रायश्चित्त योग्य अपराध में भी नौवाँ प्रायश्चित्त ही दिया जाता है । उनका अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जघन्य छः मास का तथा उत्कृष्ट बारह मास का होता है ।
सामान्य साधु - मूल पर्यंत अर्थात् 1 से 8 प्रायश्चित्त का अधिकारी है । पारांचित या अनवस्थाप्य के योग्य दोषों में भी इन्हें मूल तक ही
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1 से 8 तक के ही प्रायश्चित्त दिये जाते है ।
प्र.1096 प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र बताइये ।
उ. 1. आलोचना, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ दिन में और प्रशस्त स्थान में होती
है
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2. सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र जिस दिन होते है उस दिन के पूर्व या उत्तर
भाग में आलोचना आदि प्रायश्चित्त होता है ।
3. अर्हन्त का मंदिर, सिद्धों का मंदिर, समुद्र के नजदीक का प्रदेश, क्षीर वृक्ष, पुष्प व फलों से लदे वृक्ष है ऐसे स्थान, उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नागदेवता का मंदिर व यक्ष मंदिर, ये समस्त स्थान श्रमण की आलोचना सुनने के योग्य हैं ।
4. जो क्षेत्र पत्तों से रहित है, कांटों से भरा हुआ है, बिजली गिरने से जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष है, जिसमें कटुरस से भरे वृक्ष है, जला हुआ स्थान, शुन्य घर, रुद्र का मंदिर, पत्थरों व इटों का ढेर 'है, ऐसे स्थान आलोचना के योग्य नही हैं ।
5. . जहाँ सुखे पान, तृण, काष्ठ के पुंज, भस्म आदि पडे हो ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, फुटे हुए पात्र, गिरा हुआ घर जहाँ है, वे स्थान भी वर्ज्य होते हैं ।
चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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