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1. आदि मंगल करने से शिष्य (पाठक) शास्त्र के पारगामी होते है,
मध्य में करने से निर्विघ्न विद्या प्राप्त करते है और अंत में करने
से विद्या का फल प्राप्त होता है। 2. क्रमिक रूप से तीनों स्थानों पर मंगलाचरण करने से प्रायश्चित्त
कर्ता, विनयी शिष्य, अध्येता, श्रोता और वक्ता आरोग्य को, निर्विघ्न
रुप से विद्या तथा विद्या के फल को प्राप्त करता है । प्र.20 ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करने से क्या लाभ होता हैं ? उ. नास्तिकता का त्यांग, सभ्य पुरुषों के आचरण का पालन, पुण्य की प्राप्ति
और विघ्न विनाश इन चार लाभों के लिए परमात्मा की स्तुति-स्तवना
(मंगलाचरण) ग्रन्थ के आरम्भ में की जाती है । प्र.21 मंगल करने का क्या प्रयोजन हैं ? उ. 1. विघ्नों का उपशमन 2. शिष्य में श्रद्धा की वृद्धि 3. शास्त्रों के धारण
में आदर 4. शास्त्र विषयक उपयोग 5. ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा
6. शास्त्रों का स्पष्ट, स्पष्टतर अधिगम 7. गुरू और शास्त्रों के प्रति भक्ति .. की वृद्धि 8. प्रभावना ।। प्र.22 नाम मंगल से क्या तात्पर्य हैं ? उ. एक जीव द्रव्य अथवा अनेक जीव द्रव्य तथा एक अजीव द्रव्य अथवा
अनेक जीव द्रव्यों में जो मंगल संज्ञा नियत होती है, वह संज्ञा मंगल,
नाम मंगल हैं। प्र.23 स्थापना मंगल के प्रकार बताते हुए उसे परिभाषित कीजिए ? - उ. जो सद्भूताकार अथवा असद्भूताकार में मंगल की स्थापना की जाती
है, वह स्थापना मंगल है। ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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