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________________ प्र. 362 संपुट मुद्रा किसे कहते हैं ? उ. मिट्टी के एक शकोरे को सीधा रखकर उसके उपर दूसरे शकोरे को उल्टा रखने से जो आकृति निर्मित होती है, उसे संपुट मुद्रा कहते है । प्र. 363 नैवेद्य पूजा संपुट मुद्रा में क्यों की जाती हैं ? उ. किसी वस्तु को वश (अधिकार, कब्जे) में करने के लिए जैसे हम उस बस्तु को दोनों हाथों के बीच दबा देते हैं, वैसे ही आहार संज्ञा को वश करने की याचना परमात्मा के समक्ष संपुट मुद्रा में की जाती है । प्र. 364 नैवेद्य को कहाँ चढ़ाना चाहिए ? नैवेद्य को वर्तमान काल में स्वस्तिक ( साथिये) पर चढ़ाने की परम्परा है। पर अध्यात्म दृष्टि से देखा जाय तो, नैवेद्य को सिद्ध शिला पर चढ़ाना चाहिए, क्योंकि 'अणाहारी पद पामवा, ठवो नैवेद्य रसाल' इस दोहे की पंक्ति से हम नैवेद्य पूजा के द्वारा परमात्मा से अणहारी पद प्राप्त करने की याचना करते है जो कि सिद्धशिला पर ही संभव है अन्य स्थान पर नहीं। यदि साथिये पर नैवेद्य चढ़ाते समय उपरोक्त दोहे की पंक्ति बोली जाय तो युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि साथिया चार गति रुप संसार का प्रतीक होने से आहार का स्थान है। जब तक संसार है तब तक आहार संज्ञा है । तब संसार से अनाहारी अवस्था प्राप्त करना संभव ही नहीं है। फिर आहार स्थान पर से अणहारी पद की प्राप्ति कैसे फलीभूत होगी ? पदार्थ तो केवलीगम्य है । कौनसी उ. प्र. 365 फल पूजा 88 मुद्रा उ. विवृत्त समर्पण मुद्रा में I प्र. 366 विवृत्त समर्पण मुद्रा किसे कहते हैं ? Jain Education International में की जाती है ? For Personal & Private Use Only चतुर्थ पूजा त्रिक www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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