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________________ स्थितिबन्ध ६३ देवा पुण एइंदिय आदावं थावरं च सेसाणं । उक्कस्ससंकिलिट्ठा चद्गदिआ ईसिमझिमया ॥१३३॥ नर-तिर्यञ्चः श्रा ३ वै ६ वि ३ सू ३ । सुर-नारकाः औ २ ति २ उ १ अ १। देवाः ए १ पा १ था १ । उक्तं २८ शेषाः। नरक-तिर्यङ-मनुष्यायूंषि ३ वैक्रियिकषटकमिति वैक्रियिक-चैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग-देवगति-देवगत्यानुपूर्वीनरकगति-नरकगत्यानुपूर्वीति वैक्रियिकषटकम् ६ विकलत्रय मिति द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय त्रिकं ३ सूक्ष्मन्त्रयमिति सूक्ष्मसाधारणाऽपर्याप्तत्रयम् । इत्येतानि उत्कृष्टस्थितिकानि नरास्तिर्यञ्चश्च बध्नन्ति । औदारिकौढारिकाङ्गोपाङ्गद्वयं २ तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयं २ उद्योतः १ असम्प्राप्तसृपाटिकसंहननं १ इत्येतानि उत्कृष्टस्थितिकानि सुरनारका एव बन्नन्ति । एकेन्द्रिया १ तप २ स्थावराणि उत्कृष्टस्थितिकानि पुनः देवा बन्नन्ति। शेषाणां द्वानवतिप्रकृतीनामुस्कृष्टस्थितिबन्धं उत्कृष्टसंक्लिष्टा मिथ्यादृष्टय ईषन्मध्यमसंक्लिष्टाच1 चातुर्गतिका जीवा बध्नन्तीत्यर्थः ॥१३२.१३३॥ अथ मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धमाह बारस य वेयणीए णामागोदे य अ य मुहुत्ता । भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥१३४॥ ज्ञा० द० अन्त० । वे० मु० १२ । मो० आ० अन्त० । ना० गो० मु० ८ । अं० अन्त । वेदनीये कर्मणि जघन्यस्थितिबन्धो द्वादश मुहूर्ताश्चतुर्विंशतिघटिकाः २४ भवतीत्यर्थः। नाम• गोत्रयोः द्वयोः कर्मणोः जघन्यस्थितिबन्धः अष्टौ मुहूर्ताः षोडश घटिका १६ भवति । तु पुनः शेषपञ्चानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयाऽऽयुरन्तरायाणं पञ्चानां कर्मणां 4एकैकोऽन्तर्मुहत्तों जघन्य स्थितिबन्धो भवति ॥१३४॥ सूक्ष्मादि तीन इन पन्द्रह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीव ही करते हैं । औदारिक शरीर, औदारिक आंगोंपांग, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत और सृपाटिका संहनन इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध देव और नारकी मिथ्यादृष्टि जीव ही करते हैं । एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियांका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टि देव करते हैं। शेष बानवे प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले तथा ईषन्मध्यम परिणामवाले चारों गतिके मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं ।।१३२-१३३॥ विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिके बन्धयोग्य असंख्यात लोक-प्रमाण संक्लिष्ट परिणामोंके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड करनेपर जो अन्तिम खण्ड प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम कहते हैं। प्रथम खण्डका नाम ईषत् संक्लेश है। और दोनों के मध्यवर्ती परिणामोंकी मध्यम संक्लेश संज्ञा है। अब मूलप्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बतलाते हैं वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध वारह मूहूर्त है, नाम तथा गोत्रकर्मका आठ मुहूर्त है । शेष बचे पाँच कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तमूहूत्ते-प्रमाण है ॥१३४।। १. गो. क० १३७-१३८ । २. पञ्चसं० ४, ४०९ गो० क० १३९ । 1. ब ईषन्मध्यमपरिणामाः मिथ्यादृष्टयो वा। . 2ब एनं जघन्यस्थितिबन्धं सूक्ष्मसाम्परावगुणस्थाने बध्नाति । 3. ब इयं स्थितिर्दशमगुणस्थाने ज्ञातव्या। 4. ब ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां त्रयाणां जघन्यस्थितिः दशमगणस्थाने ज्ञातव्या । मोहनीयस्य नवमगुणस्थाने । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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