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________________ ६२ तु पुनः तासां तिर्यङ्मनुष्य देवायुर्वर्जितसर्वप्रकृतिस्थितीनां जघन्यस्थितिबन्धनं [ विपरीतेन ] ' जघन्यसंक्लेशेन [ अर्थात् ] उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामेन भवति । तत्त्रयस्य तिर्यङ्मानुष्य देवायुष्कत्रयस्य तूत्कृष्टस्थितिबन्धनं उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जवन्यस्थितिबन्धनं तद्विपरीतेन भवतीत्यर्थः ॥ १२६ ॥ उत्कृष्ट स्थितिबन्धकमाह कर्मप्रकृति सव्वकस्सट्ठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो | आहारं तित्थयरं देवाउं वा विमोचूर्ण ॥१३०॥ आहारकशरीराऽऽहारकशरीराङ्गोपाङ्गद्वयं तीर्थकरत्वं देवायुश्चेति चत्वारि मुक्त्वा शेष ११६ प्रकृतिसर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिरेव जीवो बन्धको भणितः । तच्चतुर्णां श्राहारकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गतीर्थकरदेवायुषां तु बन्धको सम्यग्दृष्टिरेव जीवो भवति ॥ १३० ॥ तत्रापि विशेषमाह - Jain Education International. देवागं पत्तो आहारयमप्पमत्तविरदो दु । तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्म समजेई ॥१३१॥ देवायुः उत्कृष्टस्थितिकं प्रमत्तगुणस्थानवर्त्तिमुनिरेवाप्रमत्तगुणस्थानाभिमुखो बध्नाति, अप्रमत्ते देवायुच्छित्तौ अपि तत्र सातिशये तीव्रविशुद्वित्वेन तदबन्धात् । निरतिशये चोत्कृष्टासम्भवात् । तु पुनः आहारकद्वयं उत्कृष्टस्थितिकं अप्रमत्तः प्रमत्तगुणस्थानाभिमुख: संक्लिष्ट एवं बध्नाति, आयुस्त्रयवर्जितानां उत्कृष्टस्थितिरुत्कृष्टसंक्लेशेन इत्युक्तत्वात् । तीर्थकर मुत्कृष्टस्थितिकं नरकगतिगमनाभिमुखमनुष्यासंयत सम्यग्दृष्टिरेव जीवो बध्नाति ॥१३१॥ शेषाणां ११६ प्रकृतीनां उत्कृष्टस्थितिबन्धकमिथ्यादृष्टीन् गाथाद्वयेनाऽऽह— र - तिरिया सेसाऊ' वेगुव्वियछक्क वियल- सुहुमतियं । सुर-रिया ओरालिय- तिरियदुगुञ्जव संपत्तं ॥ १३२॥ अब उत्कृष्ट स्थितिबन्धके करनेवाले स्वामियोंका निर्देश करते हैं आहारकशरीर, आहारकशरीर-आङ्गोपाङ्ग, तीर्थंकर और देवायु इन चार प्रकृतियोंको छोड़कर शेष एकसौ सोलह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितियोंका बन्ध करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव कहा गया है ।। १३० ॥ अब उक्त चार प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले स्वामियोंका निर्देश करते हैं देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रमत्तसंयत करता है । आहारक शरीर और आहारक आंगोपांगका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अप्रमत्त संयत करता है और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्टस्थितिबन्ध अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य करता है || १३१|| अब उक्त चार प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष जो एक सौ सोलह प्रकृतियाँ हैं उनके बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका विशेषरूपसे निरूपण करते हैं देवा से शेष नरकादि तीन आयु, वैक्रियिकषटक, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रिय जाति, १. पञ्चसं० ४, ४२६ गो० को० १३५ । २. पञ्चसं० ४, ४२७ गो० क० १३६ । ३. त से साउं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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