SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मप्रकृति कारण वान्मिथ्यात्वमनन्तम्, तदनु पनन्तीत्यनन्तानुबन्धिनः । अप्रत्याख्यानं ईषत् संयमो देशसंयमः, तं कषन्तीत्यप्रत्याख्यानकषायाः । प्रत्याख्यानं साल पंयमः, तं कान्ताति प्रत्याख्यानक पायाः । सम् एकोभूत्वा ज्वलन्ति संयमेन सहावस्थानात् , संयमो वा ज्वल येषु सत्स्वपीति संचलनाः । एते एव यथाख्यातं कषन्तीति संज्वलनकषायाः । एवं शेषनोकषायज्ञानावरणादीन्यप्यन्वर्थसंज्ञानि भवन्ति ॥११॥ संज्वलनादिचतुःकषायाणां वासनाकालमाह अंतोमुहुत्तपक्खं छम्मासं संखऽसंखऽणंतभवं । संजलणमादियाणं वासणकालो दु णियमेणे ॥११६॥ उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः । स च संज्वलनानामन्तर्मुहूर्तो वासनाकालः, प्रत्याख्यानावरणानामेक: पक्षो वासनाकालः । अप्रत्याख्यानावरणानां वासनाकालः षण्मासः । अनन्तानुबन्धिनां वासनाकालः संख्यातभवः, असंख्यातभवः, अनन्तभवो वा भवति नियमेन ॥११६॥ अथ पुद्गलविपाकीन्याह देहादी फासंता पण्णासा णिमिण तावजुगलं च । थिर-सुह-पत्तेयदुगं अगुरुतियं पोग्गलविवाई ॥११७॥ . श ५ । बं ५ । सं ५ । सं ६ । अं३ । सं ६ । व ५ । गं २ । र ५ । स्प ८ । नि १ । श्रा २ । स्थि २ । शु२ । प्र२ । अ१ । उ १ । प १ । संयुक्ताः ६२। औदारिकवैक्रियिकाऽऽहारकतैजसकार्मणशरीराणि पञ्च ४ औदारिकादिबन्धनपञ्चकं ५ प्रौदारिकादि अब कषायोंके वासना ( संस्कार ) का काल बतलाते हैं संज्वलन आदि चारों कषायोंका वासनाकाल नियमसे क्रमशः अन्तर्मुहूर्त एक पक्ष । (पन्द्रह दिन ) ६ मास और संख्यात, असंख्यात तथा अनन्तभव है ।।११६।। विशेषार्थ-कषायके उदय नहीं होनेपर भी जितने समयतक उस कषायका संस्कार बना रहता है, उसे वासनाकाल कहते हैं। यहाँ वासनाकालसे अभिप्राय यह है कि किसीके साथ वैर-विरोध हो गया तत्पश्चात् जितने कालतक उसके हृदयमें बदला लेनेका भाव बना रहता है उतने कालको वासनाकाल कहते हैं । जिन साधुओंके संज्वलन कषायका उदय रहता है उनके बदला लेनेका भाव अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। जिन श्रावकोंके प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहता है उनके बदला लेनेके भाव एक पक्षतक रहते हैं। जिन अविरतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहता है उनके बदला लेनेके भाव ६ मास तक रहते हैं और जिन मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय रहता है उनके बदला लेनेके भाव ६ माससे लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तभव तक बने रहते हैं। ऊपर बतलायी गयी कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकीके भेदसे चार प्रकारकी हैं। उनमें से पहले पुद्गलविपाकी प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैं शरीर नामकर्मसे लेकर स्पर्श नामकर्म तक पचास प्रकृतियाँ, तथा निर्माण, आतप, उद्योत और स्थिर शुभ, प्रत्येक इन तीनोंका जोड़ा, तथा अगुरुलघु आदि तीन ये सब बासठ प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं अर्थात् इनके उदयका फल जीवके पौद्गलिक शरीरमें ही होता है ॥११७॥ १. गो० क. ४६ । २. गो० क० ४७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy