________________
.
x
प्रकृतिसमुत्कीर्तन तथा सति बन्धोदयसरवप्रकृतयः कतीति चेच्चतुर्गाथाभिराह
पंच णव दोणि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ बंधपयडीओ ॥१०॥
५९।२।२६।४।६७।२।५-१२०
पञ्च ज्ञानावरणानि ५ नव दर्शनावरणानि ९ द्वे वेदनीये २ षडविंशतिर्मोहनीयानि २६ । कुतः ? मिश्र-सम्यक्त्वप्रकृत्योरुदयसत्वयोरेव कथनात् । चत्वार्यायूंषि ४ सप्तषष्टिर्नामानि ६७ । कुतः ? तद्दशबन्धनसंघात-धोडशवर्णादीनामन्तर्भावात् । द्वे गोत्रे २। पञ्चान्तरायाः ५। इत्येताः १२० विंशत्युत्तरशतं बन्धयोग्याः प्रकृतयः क्रमेण सर्वज्ञैर्भणिताः ॥१०५॥
विशेषार्थ- इस गाथामें अट्ठाईस अबन्ध प्रकृतियोंकी संख्या गिना करके अगली . १०५वीं गाथामें बन्ध-योग्य १२० प्रकृतियोंको बतलाया गया है । सो यह कथन अभेद विवक्षासे जानना चाहिए; क्योंकि भेदकी विवक्षासे आगे ग्रन्थकार स्वयं ही १०७वीं गाथामें बन्ध-योग्य प्रकृतियोंकी संख्या १४६ बतला रहे हैं। इसका अभिप्राय यह है कि यतः शरीर नामकर्म के बन्धके साथ ही बन्धन और संघात नामकर्म इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध अविनाभावी है, अर्थात् नियमसे होता है। अतः शरीर नामकर्मका बन्ध कह देनेपर पाँचों बन्धन और पाँचों संघात स्वतः ही गृहीत हो जाते हैं। इस विवक्षासे उन्हें अवन्धप्रकृतियोंमें गिनाया गया है । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि बन्धन और संघात बन्ध-योग्य ही नहीं हैं । भेद-विवक्षासे उनका बन्ध होता ही है । और प्रतिसमय बँधनेवाले समय प्रबद्ध में से उन्हें प्रदेश-विभाजनके नियमानुसार विभाग मिलता ही है। इसी प्रकार सामान्य वर्णचतुष्कके कहनेपर उनके सभी उत्तर भेद भी स्वतः गृहीत हो जाते हैं। इस गाथामें जो यह कहा गया है कि चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध और सात स्पर्श ये अबन्धप्रकृतियाँ हैं; उसका भी यह अभिप्राय नहीं समझना कि एक समयमें पाँचों वर्गों में से किसी एकका ही बन्ध होता है, शेष चारका नहीं, पाँचों रसोंमें से किसी एक रसका बन्ध होता है, शेष चारका नहीं, दो गन्धों में से किसी एकका बन्ध होता है, दूसरीका नहीं, तथा आठों स्पर्शामें से किसी एकका वन्ध होता है, शेष सातका नहीं। वस्तुतः वर्णचतुष्ककी सभी उत्तर प्रकृतियोंका प्रतिससय बन्ध होता है और साथ ही सभीको प्रदेश-विभाग भी प्राप्त होता है। ग्रन्थकारने एक सामान्य वर्ण, एक सामान्य रस, एक सामान्य गन्ध और एक सामान्य स्पर्शकी विवक्षासे अर्थात् अभेद-दृष्टिसे इन चारोंको एक-एक मानकर शेष रही संख्याको अबन्धप्रकृतियों के रूपमें निर्देश कर दिया है और इसलिए अभेद विवक्षासे आगे १०७वीं गाथामें बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १४६ बताई गयी है । वास्तवमें देखा जाय तो सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति ये दो ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि जिनका बन्ध नहीं होता। यही कारण है कि भेद-विवक्षा करनेपर भी बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १४६ ही बतलायी गयी हैं, १४८ नहीं। जो बात बन्ध-योग्य प्रकृतियोंके विषयमें कही गयी है, वही उदययोग्य प्रकृतियोंके विषय में भी जानना चाहिए। अर्थात् अभेद-विवक्षासे १२२ प्रकृतियाँ उदय-योग्य हैं और भेद-विवक्षासे सभी ( १५८) प्रकृतियाँ उदय-योग्य बतलायी गयी हैं।
१. गो० क० ३५।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org